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सर्वदर्शनसंग्रहेमायावाद में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करने के कारण शंकराचार्य को उनके विरोधियों ने 'प्रच्छन्नबौद्ध' तक कह दिया है । इसके अलावे बुद्ध को भी लोगों ने अद्वयवादी, अद्वैती आदि विशेषण दिये हैं । वस्तुतः, शून्यवाद और अद्वैतवाद में मौलिक अन्तर होते हुए भी इतना साम्य है कि विद्वानों को भी चकित रह जाना पड़ता है।
तथा हि-यदि घटादेः सत्त्वं स्वभावस्तहि कारकव्यापारवैयर्थ्यम् । असत्त्वं स्वभाव इति पक्षे प्राचीन एव दोषः प्रादुःष्यात् । यथोक्तम् । ९. न सतः कारणापेक्षा व्योमादेरिव युज्यते ।
कार्यस्यासम्भवी हेतुः खपुष्पादेरिवासतः ॥ इति । जैसे ( इसका विश्लेषण करने पर )-यदि घटादि का स्वभाव सत् होना है तब तो इसके बनानेवाले की चेष्टाएं व्यर्थ ही होंगी। ( घट सत् ही है तो इसे बनाना क्या ?) यदि 'स्वभाव असत् होना है' यह पक्ष लेते हैं तो वही पुराना दोष इसे घेर लेगा । ( यदि घट असत् है तो क्या कुम्भकार इसे कभी बना सकता है ? किसी भी दशा में कारक या निर्माता की आवश्यकता नहीं, उसकी स्थिति सन्दिग्ध हो जाती है—नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । गीता २।१६ ) जैसा कि कहा गया है-'आकाश आदि की तरह सत् वस्तु के कारण की आवश्यकता ठीक नहीं लगती और दूसरी ओर, आकाशकुसुम की तरह असत् कार्य का हेतु ( कारण ) भी असम्भव है।'
विशेष-शून्यवाद चूंकि चार कोटियों से विनिर्मुक्त है इसलिए प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रथम दो कोटियों का खण्डन किया गया है। तदनुसार घट न सत् है और न असत् । पिछली दो कोटियों ( उभयात्मक और अनुभयात्मक ) का खण्डन अब किया जायगा।
विरोधादितरो पक्षावनुपपन्नौ । तदुक्तं भगवता लङ्कावतारे१०. बुद्धया विविच्यमानानां स्वभावो नावधार्यते।
अतो निरभिलप्यास्ते निःस्वभावाश्च दर्शिताः ॥ इति । ११. इदं वस्तु बलायातं यद्वदन्ति विपश्चितः ।
यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा ॥ इति च । न क्वचिदपि पक्षे व्यवतिष्ठत इत्यर्थः ।
बाद के दोनों पक्ष ( सत् असत् दोनों होना, सत् असत् दोनों में एक भी न होना ) स्वयं ही विरोधी हैं इसलिए [ बिना प्रयास के ही ] असिद्ध हो जाते हैं। भगवान् ने जैसा कि लंकावतार-सूत्र' में कहा है-'जिन पदार्थों का विवेचन बुद्धि से होता है, उनके स्वभाव
१-लंकावतार-सूत्र विज्ञानवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवाला संस्कृत ग्रंथ है । कुल १० परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में ग्रन्थ की रचना के कारणों का वर्णन है जिसमें कहा है कि बुद्ध ने लंका में जाकर रावण को ये शिक्षाएं दी थीं। इसलिए ग्रन्थ का नाम लंकावतार-सूत्र है।