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________________ पूर्णप्रा-वर्शनम् २२३ जिस प्रकार प्रथम भेद होता है ( दृष्टान्त ) । जहाँ अनवस्या का आरोपण होता है, वहां किसी-न-किसी प्रकार विश्राम ( End ) खोजना ही पड़ता है । कहीं-कहीं यह विश्राम सिद्ध के समान ग्रहण करते हैं, जैसे-घटत्व, पटत्व आदि सामान्यों ( Generality ) में यदि सामान्यत्व की जाति मानें तो इसका भी फिर सामान्यत्व मानना पड़ेगा, उसका भी सामान्यत्व होगा-यों अनवस्था होगी। इसके निराकरण के लिए सिद्ध है कि सामान्यों की सामान्यत्व-जाति नहीं मानी जाती है । मूल में ही ऐसा नहीं होता कि घटत्व-पटत्व में जाति न मानें, क्योंकि इनमें तो जाति लोकसिद्ध है। कहीं-कहीं यह विश्राम स्वभावतः मानना पड़ता है जैसे-नेयायिकों के मत से 'यह घट हैं' इसमें घट का ग्रहण व्यवसायात्मक ज्ञान से होता है, फिर इस व्यवसाय का ज्ञान भी अनुव्यवसाय ( 'मैं घट जानता हूँ' इस प्रकार ) से होता है, इसके लिए भी दूसरे अनुव्यवसाय की आवश्यकता होती है । बुद्धि की योग्यता देखकर अपने-आप दो-चार कक्ष्याओं ( कोटियों Stages ) के बाद विमाम हो जाता है। अन्तिम व्यवसाय अज्ञात ही रहता है। बस, अनवस्था वहीं समाप्त हो गयी ( अभ्यंकर )। प्रस्तुत प्रसंग में अनवस्था का रूप यह है कि एक भेद से दूसरे भेद का अनुमान करते हैं, दूसरे भेद से तीसरे भेद का, इत्यादि । अनुमान का रूप ऊपर देख ही चुके हैं । इस अनवस्था का निराकरण भी दो तरह से हो सकता है या तो अनुमान को कहीं विश्राम कराना है या सिद्ध वाक्य मानें कि संसार में भेद है ही नहीं। (१) बुद्धि की सामर्थ्य से कहीं-न-कहीं रुक ही जाना पड़ेगा। दृष्टान्त के रूप में तो पूर्वपक्षी प्रथम भेद को मानते हैं न ? उसका तो विघात ( विध्वंस ) नहीं करते ? तब तो बड़ा आनन्द है । कम-से-कम दृष्टान्त के रूप में भी मानने का अर्थ है कि पूर्वपक्षी कुछ __ भेदों को तो स्वीकार करते हैं। इससे हमारे पक्ष का ही समर्थन हुआ। हम पर दोषा रोपण करने क्या आये कि स्वयं हमारे पक्ष को ही स्वीकार करना पड़ा। तिल की खली मांगने आये और ढेर-सा तेल देना पड़ा। (२) यदि पहले से ही दुराग्रह हो कि भेद है ही नहीं तब तो और भी अच्छा ! भेद अस्वीकार करने पर दृष्टान्त के रूप में दिया गया प्रथम भेद भी नहीं सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में अनुमान के मूलं पर ही कुठाराघात हो जायगा। अनुमान के आधार पर टिकी हुई अनवस्था का तो क्या पूछना ? जिस अनुमान के आधार पर अनवस्था चलती है उसी अनुमान का वह खण्डन कर देती है । कन्या का विवाह हुआ पर वर ही मर गये । ___इसलिए अनवस्था मानने पर भी हमारे भेदबाद की कुछ भी हानि नहीं हुई । ऐसी __ लाखों अनवस्थायें रहें तो भी हम गजनिमीलिकान्याय से अपना काम करते रहेंगे। (५. अनुमान-प्रमाण से भेद की सिद्धि ) __ अनुमानेनापि भेदोऽवसीयते। परमेश्वरो जीवाद भिन्नः। तं प्रति सेव्यत्वात् । यो यं प्रति सेव्यः स तस्माद् भिन्नः । यथा भृत्याद्राजा।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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