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________________ २२४ सर्वदर्शनसंग्रहेन हि सुखं मे स्याद् दुःखं मे न मनागपि-इति पुरुषार्थमर्थयमानाः पुरुषाः स्थपतिपदं कामयमानाः सत्कारभाजो भवेयुः । प्रत्युत सर्वानर्थभाजनं भवन्ति । यः स्वस्यात्मनो होनत्वं परस्य गुणोत्कर्ष च कथयति स स्तुत्यः प्रीतः स्तावकस्य तस्याभीष्टं प्रयच्छति । तदाह-- ३. घातयन्ति हि राजानो राजाहमिति वादिनः । ददत्यखिलमिष्टं च स्वगुणोत्कर्षवादिनाम् ॥ इति । अनुमान-प्रमाण से भी भेद की सिद्धि होती है । [ अनुमान की प्रक्रिया इस प्रकार की है ]-परमेश्वर जीव से भिन्न है ( प्रतिज्ञा + साध्य ), क्योंकि उनके लिए परमेश्वर सेव्य है ( हेतु ), जो जिसके लिए सेव्य है वह उससे भिन्न है जैसे भत्य से राजा [भिन्न है ] ( दृष्टान्त )। ___ 'मुझे केवल सुख ही मिले, दुःख थोड़ा भी नहीं हो' इस प्रकार के पुरुषार्थ की कामना करते हुए ( मुमुक्षु ) पुरुष यदि संसार ( स्थ ) के स्वामी परमेश्वर का पद ही प्राप्त करना चाहें तो उनका सत्कार नहीं होता ( ईश्वर उन पर कृपा प्रदर्शित नहीं करते ); यही नहीं, वे सब प्रकार के अनिष्ट प्राप्त करते हैं । दूसरी ओर यदि कोई अपने आपको हीनता तथा दूसरों के गुणों के माहात्म्य का वर्णन करता है तो उस स्तुति करनेवाले भक्त की, स्तवनीय परमात्मा प्रसन्न होकर सारी कामनायें पूरी करता है । [ यदि भक्त परमेश्वर की स्तुति करता है तो वे प्रसन्न होते हैं, यदि स्वयं परमेश्वर बनना चाहें (जैसे अद्वैत पक्ष में होता है) तो वे रुष्ट होकर सारे अभीष्ट कामों को नष्ट कर देते हैं । इसलिए जीव और ईश्वर में अभेद मानना ईश्वर की कोपाग्नि में घी डालना है।] ऐसा ही कहा है-'राजा लोग उन सबों का विनाश कर डालते हैं जो अपने को राजा घोषित करते हैं । उधर अपने गुणों के उत्कर्ष का वर्णन करनेवाले लोगों की सारी कामनायें वे पूर्ण करते हैं।' [ इस लौकिक उदाहरण से अनुमान होता है कि स्वामी से अभेद स्थापित करनेवाले पर स्वामी अप्रसन्न होते हैं तथा अपने से अभेद रखने पर प्रसन्न होते हैं । ] ___ एवं च परमेश्वराभेदतृष्णया विष्णोर्गुणोत्कर्षस्य मृगतृष्णिकासमत्वाभिधानं विपुलकदलीफललिप्सया जिह्वाच्छेदनमनुहरति । एतादृशविष्णुविद्वेषणादन्धतमसप्रवेशप्रसङ्गात् । तदेतत्प्रतिपादितं मध्यमन्दिरेण महाभारत तात्पर्यनिर्णये-- ४. अनादिद्वेषिणो दैत्या विष्णौ द्वषो विधितः । तमस्यन्धे पातयति दैत्यानन्ते विनिश्चयात् ॥ (म० भा० ता १११११) इति। इस प्रकार परमेश्वर से अभिन्न ( एक ) होने के लोभ से [ अद्वैतवेदान्ती लोग ईश्वर को निर्गुण मानकर ] विष्णु भगवान के गुणों के उत्कर्ष को मृगतृष्णा ( Mirage ) के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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