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________________ ४१६ सर्वदर्शनसंग्रहे(९) आकांक्षा, योग्यता आदि से रहित तथा पूर्वापर से असम्बद्ध उक्ति को अपार्थक कहते हैं । कोई व्यक्ति परास्त होने के भय से कोई उपाय न देखकर बचने के लिए-दश दाडिमानि, षडपूपाः ( दस अनार, छह पूए) या आग से सींचता है आदि-बकने लगता है। (१०) प्रतिज्ञा, हेतु आदि वाक्यों को उलट-पुलट कर रखना अप्राप्तकाल कहलाता है। पञ्चावयव अनुमान के नियम का उल्लंघन करना वास्तव में परास्त होना है। (११) प्रतिज्ञादि अवयवों में से एकाध अवयव का प्रयोग न करना न्यून कहलाता है। (१२) एक से अधिक हेतु या उदाहरण देना अधिक है। एक ही हेतु या उदाहरण से साध्य की सिद्धि हो जाने पर भी अधिक का प्रयोग करनेवाला हारेगा ही। (१३) किसी वाक्य को उसी रूप में या प्रकारान्तर से बार-बार कहना पुनरुक्त है। हाँ, अनुवाद में कोई दोष नहीं । अनुवाद विधि के द्वारा विहित वस्तु की आवृत्ति करने को कहते हैं ( न्यायसूत्र २।११६५ ) । (१४ ) जब निर्णायक लोग तीन बार बोलने को कहें फिर भी वादी कुछ न बोले तो इसे अननुभाषण कहते हैं जिससे वादी पराजित माना जाता है। (१५) वादी या प्रतिवादी की उक्ति को प्रतिवादी या वादी न समझे किन्तु मध्यस्थ समझ रहे हों तो उसे अज्ञान कहते हैं । जब तक शास्त्रार्थी एक दूसरे की बात नहीं समझेंगे तब तक शास्त्रार्थ करेंगे ही कैसे ? ( १६ ) दूसरे द्वारा दिये गये उत्तर को समझ लेने पर भी उसका उत्तर न देना अप्रतिभा है । इससे भी पराजय होती है। (१७ ) जब कोई शास्त्रार्थो हारने के डर से किसी काम का बहाना करके शास्त्रार्थ छोड़कर चल दे तो उसे विक्षेप कहते हैं। जैसे शास्त्रार्थ करते-करते कोई कहता है कि मेरे शौच का समय है, मैं चला । यदि इसके लिए पर्याप्त कारण हो तो कोई दोष नहीं। (१८) अपने पक्ष पर दोष आते देखकर दूसरे पक्ष पर भी वही दोष लगा देना और अपने दोष का निराकरण न करना मतानुज्ञा है। इससे वादी अपने को स्वीकार करता है, ऐसा समझा जाता है । वादी को कहा गया हैं कि तूप चोर हो। अब वादी इसका प्रतिवाद करता नहीं, उलटे दोष दिखानेवाले को भी चोर बनाता है। आज का समाज इसका मूर्तिमान स्वरूप है। (१९) प्रतिपक्षी की पराजय हो जाने पर भी यदि अपनी सरलता से कोई उसकी उपेक्षा कर दे तो उसे पर्यनुयोज्योपेक्षण कहते हैं। उपेक्षा करनेवाला भी दण्डनीय है। ( २० ) जहाँ किसी की पराजय वास्तव में न हुई हो किन्तु 'उसकी पराजय हुई' ऐसा कहना निरनुयोज्यानुयोग है । ( २१ ) यदि कोई व्यक्ति किसी सिद्धान्त की स्थापना करके वाद के क्रम में उस सिद्धान्त से हटने लगे तो उसे अपसिद्धान्त कहते हैं । परास्त होने के भय से लोग प्रायः अपने सिद्धान्तों की तिलाञ्जलि देकर दूसरों की ओर झुकने लगते हैं पर सीधे नहीं, प्रकारान्तर से । स्वार्थ किसे अचेत नहीं करता ? ( २२ ) हेत्वाभासों की चपेट में पड़ जाने से भी पराजय का प्रसंग हो जाता है । इनका वर्णन हम कर ही चुके हैं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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