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________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५६५ होने पर भी यह योगानुशासन त्याज्य ही हो जायगा । [ फल यह हुआ कि तथाकथित तत्त्वप्रकाशनेच्छा और योगानुशासन में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इसमें व्यभिचार ( Inconsistency ) देखते हैं । [ दूसरे विकल्प के साथ दूसरा दोष ढूँढ़ते हैं- ] यह योगानुशासन ( योग के द्वारा ) निःश्रेयस का कारण है, यह बिल्कुल निश्चित है । इसके लिए श्रुति का प्रमाण है'अध्यात्मयोग ( आत्मा में चित्त को लगाना, निदिध्यासन ( Contemplation ) की प्राप्ति होने पर आत्मा ( देव ) का साक्षात्कार करके ज्ञानी (धीर) पुरुष हर्ष और शोक दोनों का त्याग कर देते हैं' (= मुक्त हो जाते हैं ) [ काठक० २।१२ ]। इसके लिए स्मृति - प्रमाण भी है - 'जब तुम्हारी बुद्धि समाधि की अवस्था में आत्मा में स्थिर हो जायगी तब तुम योग ( योगफल अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त करोगे ।' ( गी० २।५३ ) । [ इन दोनों प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि योग मोक्ष का कारण है । शास्त्रकारों का तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा हो या नहीं योगानुशासन किया हो जायगा । अतः उक्त प्रकाशनेच्छा नियमतः योगानुशासन की पूर्ववर्तिनी नहीं हो सकती । ] विशेष - जहाँ 'अर्थ' शब्द का अर्थ आनन्तर्य ( बाद में होना ) लेते हैं वहीं निश्चय रूप से कोई काम पहले हो चुका रहता है - भले ही उस काम का प्रतिपादन नहीं हुआ हो और न उसके प्रतिपादन की आवश्यकता ही समझी गई हो । 'स्नानं कृत्वाथ गतः ' वाक्य में गमन क्रिया का प्रतिपादन स्नान के बाद हुआ है, स्नान गमन के पूर्व हुआ है । भले ही उस प्रतिपादन का उपयोग कुछ न हो और न ही नियमत: स्नान और गमन की पूर्वापरता देखी जाय – फिर भी 'अथ' शब्द 'स्नान के अनन्तर' का ही बोध कराता है । यदि 'अथ' शब्द का प्रयोग हो और किसी भी पूर्व क्रिया का उल्लेख नहीं हुआ हो तो भी योग्यता के बल से निर्णय करना ही होता है उसके पूर्व क्या हुआ था । ऐसी अवस्था में जो क्रिया निरन्तर साथ दे उसी की पूर्ववृत्तता ( Priority ) माननी चाहिए । अत एव शिष्यप्रश्न तपश्चरण रसायनोपयोगाद्यानन्तयं पराकृतम् । 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब्र० सू० १1१1१ ) इत्यत्र तु ब्रह्मजिज्ञासाया अनधिकार्यत्वेनाधिकारार्थत्वं परित्यज्य साधनचतुष्टयसम्पत्तिविशिष्टाधिकारिसमर्पणाय शमदमादिवाक्यविहिताच्छमादेरानन्तर्यमथशब्दार्थ इति शंकराचार्येनिरटङ्कि । इसलिए, शिष्य का प्रश्न, तपश्चर्या या रसायन का उपयोग ( शरीर में शक्ति लाने के लिए ) आदि के अनन्तर [ योगानुशासन होगा ] - यह पक्ष ( ' अथ' शब्द को अनन्तर के अर्थ में लेना ) खण्डित हो गया । [ जो लोग 'अथ' का अर्थ अनन्तर करते हैं वे लोग अपनी पुष्टि के लिए बहुत से कार्य लेते हैं। प्रश्न है कि तब योगानुशासन किस कार्य के बाद किया गया ? कुछ शास्त्र शिष्यों के द्वारा प्रश्न किये जाने के बाद शास्त्रकारों
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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