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________________ ५६६ सर्वदर्शनसंग्रहे की प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं, जैसे - पाशुपतशास्त्र । कुछ शास्त्र तपस्या के बाद ज्ञानोत्पत्ति होने पर लिखे जाते हैं, जैसे- पाणिनि का व्याकरण । कुछ शास्त्र पारदादि के संयोग से बने हुए रसायनों का सेवन करने के बाद तत्त्वसाक्षात्कार होने पर लिखे जाते हैं। गुरु की आज्ञा से या लोगों पर दया करने के लिए भी शास्त्र लिखे जाते हैं । इन उपायों से शास्त्रकार शास्त्र की रचना करने के लिए प्रवृत्त होते हैं । किन्तु इनमें से कोई भी कार्य योगानुशासन के पूर्व में नियमपूर्वक नहीं माना जा सकता । जो गति तत्त्वप्रकाशनेच्छा की है, वही तो इन सबों की भी है । अतः 'अर्थ' का अर्थ 'अनन्तर होना' नहीं लिया जा सकता । ] विहित होने के कारण, शंकरा बाद ऐसा किया है । [ इच्छा का वेदान्तसूत्र के प्रथम सूत्र - 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( इसलिए अब ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए ), इसमें [ अथ शब्द का अर्थ अधिकार ( आरम्भ ) नहीं हो सकता क्योंकि ] ब्रह्म की जिज्ञासा ( जानने की इच्छा ) का आरम्भ नहीं किया जा सकता अतः 'अधिकार' अर्थ को छोड़कर, चार साधनों की सम्पत्ति से युक्त अधिकारी को समर्पित करने के लिए, शमदमादि वाक्य ( = 'शान्तो दान्त: ०' ) में चार्य ने 'अथ' शब्द का अर्थ 'शमादि छहों पदार्थों के आरम्भ नहीं होता अतः शंकराचार्य ने अथ का अर्थ 'बाद' कि किसके बाद ? शंकराचार्य अधिकारी चुनने में बड़ी रुचि जिसे ब्रह्मसूत्र सौंप सकें । अतः 'अथ' से ' अधिकारी बनने के बाद' अर्थ लेते हैं । पर अधिकारी है कौन ? 'शान्तो दान्त: ० ' वाक्य इसके लिए तो प्रस्तुत ही है । बस, 'अथ' का अर्थ हुआ - शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान से युक्त होने पर ब्रह्म की जिज्ञासा होती है । ] अब प्रश्न हुआ ही किया है। दिखलाते हैं । वह अधिकारी विशेष - उक्त चार साधनों के नाम शंकर ने इस प्रकार गिनाये हैं - ( १ ) नित्य और अनित्य वस्तुओं में विवेक करना, ( २ ) ऐहिक और आमुष्मिक भोग सामग्रियों से वैराग्य, ( ३ ) शम, दमादि साधन-सम्पत्ति तथा ( ४ ) मुमुक्षु होना ( १।१।१ का भाष्य ) । वे आगे कहते हैं - तस्मादथशब्देन यथोक्तसाधनसम्पत्त्यानन्तर्यमुपदिश्यते । ( वहीं ) । ( ३ क 'अर्थ' शब्द मङ्गल का द्योतक भी नहीं ) ? अथ मा नाम भूदानन्तर्यार्थोऽथशब्दः । मङ्गलार्थः किं न स्यात् मङ्गलस्य वाक्यार्थे समन्वयाभावात् । अर्गाहिता भीष्टावाप्तिमङ्गलम् । अभीष्टं च सुखावाप्तिदुःखपरिहाररूपतयेष्टम् । योगानुशासनस्य च सुखदुःखनिवृत्त्योरन्यतरत्वाभावान्न मङ्गलता । तथा च योगानुशासनं मङ्गलमिति न सम्पनोपद्यते । अच्छा, 'अनन्तर होना' के अर्थ में 'अर्थ' शब्द भले ही न रहे, लेकिन इसे मंगलार्थंक क्यों नहीं मानते ? इसलिए नहीं मानते हैं कि मंगल के साथ वाक्य के अर्थ का सम्बन्ध नहीं
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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