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________________ ६५० सर्वदर्शनसंग्रहेहूँ', 'ब्रह्म हूँ' (वृ० २।५।१९), 'वह तुम्हीं हो' ( छां० ६८७ ) इत्यादि श्रुतियों में । 'अहम्' की प्रतीति ( अनुभव ) से ज्ञेय को ही ब्रह्म माना गया है। इस तरह निम्नोक्त अनुमान की सूचना मिलती है (१) विवादास्पद ( आत्मा ) अजिज्ञास्य है (प्रतिज्ञा )। (२) क्योंकि इसके विषय में कोई सन्देह नहीं है ( हेतु)। (३ ) जिस प्रकार हाथ में विद्यमान आमलक-फल ( उदाहरण)। विशेष-यदि 'अहम्' के अनुभव से गम्य ( Knowable ) तथा सांसारिक सुखदुःख का भोग करनेवाला जीव हो ब्रह्म होता तो भी इन श्रुतियों में विरोध की आशा नहीं हो सकती-'निष्फलं निष्क्रिय शान्तम्' ( श्वे० ६॥ ९), 'अप्राणो ह्यमनाः' ( मुं० २।१।२), 'सदेव सौम्येदमन आसीत्' ( छां० ६।२।१ ) आदि । इन सबों में सांसारिक सुख-दुःख, क्रियाओं आदि से आत्मा को पृथक् दिखाने की चेष्टा की गई है। ब्रह्म के लक्षण इनमें नहीं हैं । वास्तव में ये श्रुतियां जीव की प्रशंसा करने के लिए अर्थवाद के रूप में प्रस्तुत हैं । इस प्रकार सन्देहाभाव में आत्मा को जिज्ञासा नहीं होगी-यह कहा गया । अब प्रयोजन की असम्भावना दिखाकर वही बात सिद्ध करेंगे । इस प्रकार यह लम्बा पूर्वपक्ष कुछ दूर तक चलेगा। ( ४ क. आत्मा को जिज्ञासा असम्भव-प्रयोजन का अभाव ) तथा फलं न फलभावमीक्षते पुरुषरीत इति व्युत्पत्त्या निःशेषदुःखोपशमलक्षितं परमानन्दैकरसं च पुरुषार्थशब्दस्यार्थः सकलपुरुषधौरेयः प्रेप्स्यते नैतत्सांसारिक सुखजातम् । तस्यैहिकस्य पारलौकिकस्य च सातिशयतया च सदृशतया च प्रेक्षावद्भिरीमानत्वानुपपत्तेः। यत्तत्परिपन्थि दुःखजातं तज्जिहास्यते। तच्चाविद्यापरपर्यायसंसार एव । कर्तृत्वादिसकलानर्थकरत्वादविद्यायाः। - उसी प्रकार [ आत्मा की जिज्ञासा का कोई प्रयोजन या फल भी नहीं है ] जिसे फल आप लोग समझते हैं वास्तव में वह फल ( प्रयोजन ) हो ही नहीं सकता । [ अब जिसे आप लोग फल समझते हैं उसका हम उल्लेख करते हैं-] 'पुरुषों के द्वारा जिसकी कामना ( /अर्थ-धातु ) की जाय'—यही व्युत्पत्ति है, इससे सभी अच्छे अच्छे लोग पुरुषार्थ शब्द का अर्थ वह फल लेते हैं जिसमें सभी दुःखों का शमन हो जाय तथा परमानन्द का ही एक मात्र रस मिलता रहे। इस सांसारिक सुख-समूह का अर्थ वे लोग [ पुरुषार्थ से कभी ] नहीं लेते । सुख चाहे ऐहिक हो या पारलौकिक-उसमें अतिशयता ( एक से बढ़कर दूसरा सुख होना, तारतम्य, Gradation ) तथा सादृश्य ( उसकी तरह का दूसरा सुख होना, Similarity ) होने के कारण बुद्धिमान् लोग उसकी
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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