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________________ शांकरपनन् ६४९ प्रकार बढ़ई (तम ) और उसके बसूले ( वासि ) में। [जिस प्रकार बढ़ई और बसूले में तादात्म्य नहीं हो सकता क्योंकि बढ़ई कर्ता है और बसूला करण । कर्ता और करण में तादात्म्य नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा और मन में भी तादात्म्य नहीं होगा, क्योंकि दोनों में भेद है-दोनों में एक पर कर्तृधर्म का आरोपण है ( आत्मा = कर्ता है ), दूसरे पर ( मन पर) करण-धर्म का आरोपण है। विरुद्ध धर्मों का आरोपण होने से दोनों में भेद है-जब भेद ही स्पष्ट है तब जिज्ञासा क्यों करेंगे ?] __यद्यमेव एव नाद्रियते तहि 'स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि संख्यानमुत्सन्नसंकथं स्यात् । न स्यात् । एवं लोके शास्त्रे चोभयथा शब्दप्रयोगदर्शने मुख्यार्थत्वानुपपत्तो 'मश्चाः क्रोशन्ति' इत्यादिवदौपचारिकत्वेनोपपत्तेः। [पूर्वपक्षियों को उक्त अभेद-स्थापना पर शंका होती है-] यदि आप अभेद मानते ही नहीं हैं तो 'मैं मोटा है', 'मैं पतला' हैं, 'मैं काला हैं' इत्यादि का जो सम्यक ज्ञान है उसकी जड़ तो मिट जायगी। कोई नहीं कहेगा कि ये अनुभव हमें नहीं होते। सबों को मानना पड़ेगा कि मोटा, पतला, काला, गोरा का अनुभव सबों को होता है । यदि आत्मा और शरीर में भेद ही है, अभेद कभी नहीं तो ये वाक्य आते कैसे हैं ? ] उत्तर में कहेंगे कि ऐसी बात नहीं । इस प्रकार लौकिक या शास्त्रीय वाक्यों में, कहीं भी जब शब्द-प्रयोग हो और मुख्य अर्थ संगत नहीं हो रहा हो तो 'मंच चिल्लाते हैं' इत्यादि वाक्यों की तरह लाक्षणिक मानकर तो उन वाक्यों की सिद्धि हो सकती है। कारण यह है कि शब्दों का प्रयोग दोनों प्रकार से ( मुख्य वृत्ति और गौण वृत्ति से भी ) होते देखा जाता है । [ जिस प्रकार 'मंच चिल्लाते हैं। इस वाक्य में अचेतन मंचों पर चेतन के धर्म 'चिल्लाने का आरोप करते हैं तब मुख्य वृत्ति से अर्थ नहीं लगता और निदान लक्षणावृत्ति ( गौण वृत्ति ) की सहायता लेनी पड़ती है । उसी प्रकार 'मैं' आत्मा पर शरीर के धर्म मोटा, पतला आदि का आरोप गौण वृत्ति से होता है । ऐसे व्यवहार ( वाक्य-प्रयोग ) असम्भव नहीं हैं, उपपत्ति ( Explanation ) से युक्त हैं।] न द्वितीयः। अहमनुभवगम्यस्यैव श्रुतिगम्यत्वात् । 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (०२११) इत्यादिश्रुतिभ्यो हि ब्रह्मावगम्यते । ब्रह्मभावश्च 'अहमात्मा ब्रह्म' (बृ० २।५।१९), 'तत्त्वमसि' (छां० ६८७) इत्यादिश्रुतिष्वहंप्रत्ययगम्यस्यैव बोध्यते। तथा चेदमनुमानं समसूचिविमतमजिज्ञास्यम्, असन्दिग्धत्वात्, करतलामलकवत् । दूसरा विकल्प [कि श्रुति से ज्ञेय आत्मा की जिज्ञासा होती है ] भी ठीक नहीं । जो आत्मा 'अहम्' के अनुभव से ज्ञेय है वही श्रुति से ज्ञेय हो सकती है। 'ब्रह्म सत्य है, ज्ञान और अनन्त है' ( ते० २।१।१ ) इत्यादि श्रुतियों से ब्रह्म का ज्ञान होता है और मैं आत्मा
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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