SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वदर्शनसंग्रहे अनुमान बिना व्याप्ति के ज्ञान के सम्भव नहीं है । अत: अर्हमुनि को यह होना ही चाहियेसभी वस्तुओं के विषय में व्याप्ति होनी परमावश्यक है । इसके लिए 'निखिलार्थंग्रहणस्वभाव' होना ही पड़ेगा । न चाखिलार्थप्रतिबन्धकावरणप्रक्षयानुपपत्तिः । सम्यग्दर्शनादित्रयलक्षणस्यावरणप्रक्षयहेतुभूतस्य सामग्रीविशेषस्य प्रतीतत्वात् । अनया मुद्रयापि क्षुद्रोपद्रवा विद्राव्याः । [ हेतु में जो विशेष्य = प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्व -- लगा है, उसमें दोष प्राप्त होने की शंका करते हैं---] ऐसा न समझें कि अखिल वस्तुओं के [ प्रकाशन या ज्ञान में ] रुकावट डालनेवाले आवरण ( ढक्कन Covering ) के विनाश की सिद्धि नहीं होगी । ( अर्थात् अर्हमुनि अखिल वस्तुओं का ज्ञान रखते हैं, उसमें कहीं भी कोई रुकावट नहीं डाल सकता | इसका कारण यह है कि सम्यग्दर्शन आदि तीन ( रत्नों) से युक्त तथा आवरण का विनाश करनेवाले कुछ ऐसे विशिष्ट साधन ( सामग्री विशेष ) हैं, जिनकी प्रतीति होती है । [ अभिप्राय यह है कि सभी वस्तुओं के ज्ञान में रुकावटें या आवरण हैं, उनके नष्ट हो जाने पर अर्हमुनि का यह स्वभाव ही हो जायगा कि वे सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करें और फिर सर्वज्ञत्व उनमें क्यों नहीं रहेगा ? लेकिन प्रश्न है कि इन आवरणों को नष्ट करने के उपाय भी हैं क्या ? हाँ, हैं- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र । इन तीन रत्नों के धारण से आवरण प्रक्षीण हो जाते हैं, मोक्ष का मार्ग खुल जाता है । त्रिरत्न का स्वरूप आगे चलकर बतलायेंगे। अभी तो शत्रुओं से युद्ध में फँसे हैं । । इस रीति से भी दुष्टों ( जैन-मत के आक्षेपकों ) के उपद्रव ( आक्षेप ) दबा दिये जायँ । ११० ( १० नैयायिकों की शंका और उसका उत्तर ) नन्वावरणप्रक्षयवशादशेषविषयं विज्ञानं विशुद्धं मुख्यप्रत्यक्षं प्रभवतीत्युक्तं, तदयुक्तम् । तस्य सर्वज्ञस्यानादिमुक्तत्वेनावरणस्यैवासम्भवादिति चेत्-तन्न । अनादिमुक्तत्वस्यैवासिद्धेः । न सर्वज्ञोऽनादिमुक्तः । मुक्तत्वादितरमुक्तवत् । बद्धापेक्षया हि मुक्तव्यपदेशः । तद्रहिते चास्याप्यभावः स्यादाकाशवत् । [ नैयायिकों की शंका है- ] आप ( जैन-लोग जो यह कहते हैं कि आवरण के अच्छी तरह ( प्रकर्षेण ) नष्ट हो जाने पर, सभी पदार्थों के विषय में, विशुद्ध विज्ञान ( Pure intelligence ) उत्पन्न होता है, जिसमें सबसे अधिक तो आपकी यह बात ठीक नहीं है । कारण यह है कि सर्वज्ञ तो उसमें आवरण ( ज्ञान को ढंकनेवाले तत्त्व ) की सम्भावना ही उत्तर में कहते हैं कि ] यह शंका भी युक्तियुक्त नहीं है । आप 'अनादिकाल से मुक्त प्रत्यक्ष - शक्ति रहती है, अनादिकाल से मुक्त है, कहाँ से होगी ? [ हम
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy