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आर्हत-दर्शनम्
( सर्वज्ञ ) ' की ही सिद्धि नहीं कर सकते । सर्वज्ञ अनादिकाल से मुक्त नहीं है, क्योंकि वह भी अन्य मुक्त पुरुषों की तरह 'मुक्त' होता है । 'मुक्त' शब्द 'बद्ध' की अपेक्षा रखता है । ( जो मुक्त होगा तो किसी बन्धन से ही; इसलिए मुक्त को पहले बद्ध होना आवश्यक है, चाहे वह सर्वज्ञ क्यों न हो । ) यदि वह ( बद्ध ) नहीं रहेगा तो इस ( मुक्त ) का भी अभाव हो जायगा, जैसे - आकाश [ न तो बद्ध रहता है और न मुक्त | इसलिए या तो बद्ध और मुक्त दोनों रखना पड़ेगा या दोनों में कोई नहीं । ]
नन्वनादेः क्षित्यादिकार्यपरम्परायाः कर्तृत्वेन तत्सिद्धिः । तथा हि-क्षित्यादिकं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवद् । तदप्यसमीचीनम् । कार्यत्वस्यैवासिद्धेः । न च सावयवत्वेन तत्साधनमित्यभिधातव्यम् । यस्मादिदं विकल्पजालमवतरति ।
[ नैयायिक लोग उत्तर दे सकते हैं कि ] पृथ्वी आदि अनादिकाल से चली आनेवाली कार्य-परम्परा को देखकर [ उन कार्यों के ] कर्ता के रूप में उस ( सर्वज्ञ ईश्वर ) की सिद्धि हो जाती है । समझने के लिए यह अनुमान लें – 'पृथ्वी आदि इसलिए कर्तृयुक्त ( Having a doer, i. e. God ) हैं कि ये ( पदार्थ ) कार्य के रूप में हैं, जैसे कि घट ।' ( जिस प्रकार घट का कर्ता कुम्भकार है, उसी प्रकार अनादिकाल से चलनेवाले पृथ्वी आदि पदार्थों के लिए भी एक अनादिकर्त्ता की आवश्यकता है । वही कर्त्ता ईश्वर है । यह नैयायिकों की तर्कप्रणाली ईश्वर को सिद्ध करने में काम आयी है । ) [ अब हमारा ( जैनियों का ) प्रत्युत्तर है - ] यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इन वस्तुओं का हम कार्य के रूप में ही स्वीकार नहीं कर सकते ।
आप यह नहीं कह सकते हैं की [ पृथ्वी आदि पदार्थों के ] अवयवयुक्त होने के कारण उस ( कार्यत्व ) की सिद्धि हो जायगी, क्योंकि यह विकल्प का समूह वहाँ पर आ जायगा । [ इसके बाद पाँच विकल्प देकर उनका खण्डन किया जायगा । ]
विशेष - जैनों के प्रहार से बचने के लिए वीर नैयायिक बहुत-सी युक्तियां देते हैं । जैनों का कहना है कि पृथ्वी कार्य नहीं है, तब नैयायिकों ने कहा कि जिन-जिन पदार्थों की रचना में टुकड़े या अवयव होते हैं । वे पदार्थ कार्य हैं । अब जैन लोग विकल्प का जाल फैलाकर यह सिद्ध करने की चेष्टा करेंगे कि सावयव होने से ही कोई पदार्थ कार्य नहीं हो जायगा ।
( ११. सावयवत्व के पाँच विकल्प और उनका खण्डन ) सावयवत्वं किमवयवसंयोगित्वम्, अवयवसमवायित्वम्, अवयवजन्यत्वम्, समवेतद्रव्यत्वम्, सावयवबुद्धिविषयत्वं वा ?
न प्रथमः । आकाशादौ अनैकान्त्यात् । न द्वितीयः । सामान्यादौ व्यभिचारात् । नं तृतीयः । साध्याविशिष्टत्वात् ।