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________________ आर्हत-दर्शनम् १०९ शबरभाष्य ) इत्येवं जातीयकंरध्वरमीमांसागुरुभिविधिप्रतिषेधविचारणानिबन्धनं सकलार्थविषयज्ञानं प्रतिपद्यमानैः सकलार्थग्रहणस्वभावकत्वमा - त्मनोऽभ्युपगतम् । यदि [ सर्वज्ञत्व सिद्ध करने का हेतु 'अशेषार्थ ग्रहण करने की प्रकृति' ] नहीं रखें तो चोदना या विधि ( Injunction ) के बल से सभी विषयों के ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी ( अन्यथा अनुपपत्त्या ) । दूसरे, निम्नोक्त व्याप्ति ज्ञान की उत्पत्ति भी [ नहीं हो सकेगी ] - ' सभी वस्तुएँ अनेकान्तात्मक ( अनिश्चित ( Indeterminate ) हैं क्योंकि उनकी सत्ता है ( हेतु ) । [ इस प्रकार अर्थापत्ति से उपर्युक्त स्वरूपासिद्ध दोष का खंडन हो जाता है । एक तो विधि वाक्यों की सर्वार्थगामिनी प्राप्ति हमें बाध्य करती है कि विधि के विधायकों (जैसे अर्हन्मुनि) का स्वभाव सभी विषयों का ज्ञान करनेवाला मानना होगा । दूसरी ओर, सभी विषयों को अनेकान्त माननेवाली व्याप्ति भी बाध्य करती है कि हम उपर्युक्त स्वभाव को स्वीकार करें। फिर कहाँ रहा स्वरूपासिद्ध दोष ? प्रत्युत उस हेतु के बिना काम ही नहीं चलता । अब चोदना या विधि की सर्वव्यापकता सुनें । ] चोदना (विधि) बीते हुए विषयों को ( जैसे अर्थवाद में ) वर्तमान विषयों को ( जेसे यागादि को ), भविष्य में होनेवाले विषयों को ( जैसे स्वर्गसुख प्राप्ति आदि ) सूक्ष्म वस्तुओं को ( जैसे शरीर धारण के पूर्व जीव ), व्यवहित ( Obstructed जैसे शरीरादि के द्वारा व्यवधान पाने पर जीव ) या दूर की वस्तुओं को ( जैसे स्वर्गादि ) बतलाती है। = इन सभी प्रकार के विषयों का निर्देश विधियों में है जिससे वे विधियाँ मीमांसकों के ही अनुसार निखिलार्थ बोधक हैं । इसी प्रकार को चोदना अर्हन्मुनि के बनाये हुए आगम में भी देखी जाती है । तो क्या वह आगम सर्वार्थप्रकाशक नहीं होगा ? ) ( मीमांसासूत्र १।१।२ पर शबरस्वामी का भाष्य ) - इस प्रकार के अध्वरमीमांसा ( यज्ञमीमांसा, कर्ममीमांसा ) ' के गुरुगण विधि ( Injunctions ) और प्रतिषेध ( Prohibitions ) के विचार पर आश्रित सभी वस्तुओं के ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए, आत्मा ( अर्हन्मुनि ) के कार्थग्रहण रूपी स्वभाव को मानते हैं । विशेष- चोदना के प्रणेता अर्हन्मुनि में निखिल वस्तुओं का ज्ञान होना आवश्यक है । यदि उनका स्वभाव निखिल विषयों का ग्रहण करना नहीं होता, तो यह सम्भव नहीं था । इसलिए अर्थापत्ति के द्वारा इसकी सिद्धि होती है । इसके अलावे अर्हन्मुनि ने यह अनुमान भी कहा है - ' सब कुछ अनेकान्त ( अनिश्चयात्मक ) है क्योंकि उसकी सत्ता है ।' यह १. वेद के अध्वर - भाग या कर्मकाण्ड पर जोर देने के कारण जैमिनीय दर्शन का नाम कर्म-मीमांसा या पूर्वमीमांसा भी है जब कि वेदान्त को जिससे ज्ञानकाण्ड का वर्णन है उत्तरमीमांसा या ज्ञानमीमांसा भी कहते हैं। बाद में वेदान्त नाम पड़ जाने पर पहले को केवल मीमांसा भी कहने लगे ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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