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सर्वदर्शनसंग्रहे
ज्ञान को रोकनेवाले तत्व नष्ट हो जायं। किसी ( व्यक्ति ) में जिस ( वस्तु ) को ग्रहण करने का स्वभाव ( योग्यता ) है, ज्ञान के प्रतिबन्धक प्रत्ययों के नष्ट हो जाने पर, वह ( व्यक्ति ) उस ( वस्तु ) का साक्षात्कार करेगा ही । उदाहरण के लिए, तिमिर ( अन्धकार ) आदि रुकावटों के नष्ट हो जाने पर, दृष्टि-विज्ञान ( इन्द्रिय ) रूप का साक्षात्कार करता है।
तदग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मा । तस्मात्सकलपदार्थसाक्षात्कारोति । न तावदशेषार्थग्रहणस्वभावत्वमात्मनोऽसिद्धम् ।
सभी पदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव उसमें है तथा उसका प्रतिबन्ध डालनेवाले प्रत्यय नष्ट हो चुके हैं, इसलिए एक आत्मा ऐसी ( सर्वज्ञ के रूप में ) है। इसलिए सभी पदार्थों का साक्षात्कार करनेवाली [ वह आत्मा ] है। इसमें आत्मा का सभी वस्तुओं को ग्रहण करनेवाला स्वभाव असिद्ध नहीं होता।
विशेष-सर्वज्ञ को सिद्ध करने के लिए अनुमान यों दिया गया( १ ) कश्चिदात्मा सकलपदार्थसाक्षात्कारी-प्रतिज्ञा । । २ ) तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्-हेतु। । ३ ) यद्यद् ...... रूपसाक्षात्कारि-उदाहरण । [४) तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मा
उपनय। । ५ ) तस्मात्सकलपदार्थसाक्षात्कारी ( आत्मा अर्हन् )-निगमन ।
इस प्रकार पांच अवयवों का यह परार्थानुमान है जिससे सर्वज्ञत्व की सिद्धि भलीभाँति हो जाती है। ___ अब उपर्युक्त हेतु-अशेषार्थ को ग्रहण करने की प्रकृति में स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास देखने की चेष्टा की जाती है । चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूप, रस आदि विषयों को ग्रहण करती हैं । यह इनका स्वभाव है । मन और आत्मा का कोई ऐसा स्वाभाव नहीं कि वे अमुक विषय को ही ग्रहण करेंगे। प्रत्यक्ष ज्ञान में उनका विषय इन्द्रियों से सम्बद्ध रहता है, अनुमान में तो उससे भी पुनः सम्बद्ध (= इन्द्रिय सम्बद्ध सम्बद्ध ) विषय होता है । इस प्रकार सभी वस्तुओं को ग्रहण करने का आत्मा का स्वभाव तो असिद्ध है, इसे स्वरूपासिद्धि कहेंगे । इसी के उत्तर में कहा गया है कि आत्मा का स्वभाव असिद्ध नहीं । इसके लिए कारण अब देंगे और मीमांसकों को आड़े हाथों लिया जायगा ।
चोदनाबलान्निखिलार्थज्ञानोत्पत्त्यन्यथानुपपत्त्या, सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वादिति व्याप्तिज्ञानोत्पत्तश्च । 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थमवगमयति' (मो० स० ११२