________________
पातम्बामसनम् न्यायेन एकैकस्यां नाडयां भवति । सत्यहनिशं श्वासप्रश्वासयोः षट्शताधिककविंशतिसहस्राणि जायन्ते । अत एवोक्तं मन्त्रसमर्पणरहस्यवेदिभिरजपामन्त्रसमर्पणे४०. षट्शतानि गणेशाय षट्सहस्त्रं स्वयंभुवे ।
विष्णवे षट्सहस्त्रं च षट्सहस्रं पिनाकिने । ४१. सहस्रमेकं गुरवे सहस्त्रं परमात्मने ।
सहस्रमात्मने चैवमर्पयामि कृतं जपम् ॥ इति । जिस प्रकार घटीयंत्र ( रहट ) में घट ( लोहे की बाल्टियां ) घूमते हैं उसी तरह वह वायु भी सूर्योदय से आरम्भ करके ढाई-ढाई घड़ी ( ढाई घड़ी = १ घण्टा ) तक प्रत्येक नाड़ी ( इडा, पिंगला ) में रहती है । [ प्राणियों की दाहिनी नाड़ी ( दाहिनी नासिका की सांस ) पिंगला कहलाती है, बायीं नाड़ी इड़ा है। दोनों के बीच में सुषम्णा बहती है। वायु-संचार २३ घड़ी ( = १ घण्टे ) तक पिंगला के द्वारा होता है, फिर २३ घड़ी इड़ा के द्वारा वायु चलती है, फिर पिंगला और इड़ा-यही क्रम है।]
इस प्रकार वायु के चलने से दिन-रात में इक्कीस हजार छह सौ ( २१६००) श्वासप्रश्वास होते हैं। [ दिन-रात में ६० घड़ियां ( घटी या दण्ड ) होती हैं। एक घटी में ६० पल होते हैं ( = दिन-रात में ६०४ ६० = ३६०० पल ) । एक पल में ६ बार श्वास-प्रश्वास लेते हैं, अतः दिन-रात में ३६००४ ६ = २१६०० बार श्वास-प्रश्वास होता है।]
इसीलिए मन्त्र-समर्पण का रहस्य जाननेवाले लोग अजपामन्त्र' के समर्पण के विषय में कहते हैं-मैं इस किये हुए जप में से ६०० मन्त्र गणेश को, ६००० ब्रह्मा को, ६००० विष्णु को,६००० शिव को, १००० गुरु को, १००० परमात्मा को तथा १००० आत्मा को अर्पित कर रहा हूँ ॥ ४०-४१ ॥'
तथा नाडीसंचारणदशायां वायोः संचरणे पृथिव्यादीनि तत्त्वानि वर्णविशेषवशात्पुरुषार्थाभिलाषुकैः पुरुषैरवगन्तव्यानि । तदुक्तमभियुक्तः
४२. साधं घटीद्वयं नाड्योरेकैकार्योदयाद्वहेत् ।
अरघट्टघटीभ्रान्तिन्यायो नाड्योः पुनः पुनः॥ १. श्वास-प्रश्वास के रूप में स्वभावतः जपा जानेवाला मन्त्र अजपामन्त्र है । दूसरे मन्त्रों की तरह इसे जपते नहीं इसलिए इसे अजपा कहते हैं । श्वास और प्रश्वास में हंसः की मन्त्र-भावना की जाती है। स्वभावतः इसे २१६०० बार प्रतिदिन जपते हैं । इसे ही उलटने पर 'सोऽहम्' कहते हैं । इस जप का विभाजन करके गणेशादि देवताओं को अर्पण करते हैं।