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________________ चार्वाकदर्शनम् १५ 'गौ के समान पिण्ड' संज्ञी है अर्थात् उस परार्थ का बोध कराता है । उपमान संज्ञा और संज्ञ का सम्बन्ध मात्र बतलाता है, किसी दूसरे सम्बन्ध को बतलाने की शक्ति इसमें नहीं, अतः व्याप्ति का ज्ञान कराना उसके लिए सांध्य नहीं, क्योंकि व्याप्ति में उपाधि-रहित सम्बन्ध का बोध होता है । इसी प्रकार अभावादि प्रमाण भी इस काम में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि अभाव में तो केवल अभाव का ज्ञान होगा उससे भिन्न ( व्याप्ति आदि ) का ज्ञान वह नहीं करा सकता । ( ११. व्याप्तिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं है) किं च - उपाध्यभावोऽपि दुरवगमः । उपाधीनां प्रत्यक्षत्वनियमासम्भवेन प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि, अप्रत्यक्षाणामभावस्य अप्रत्यक्षतयाऽनुमानाद्यपेक्षायामुक्तदूषणानतिवृत्तेः । अपि च, 'साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तिः' इति तल्लक्षणं कक्षीकर्त्तव्यम् । तदुक्तम् इसके अलावे, यदि उपाधि के अभाव को [ व्याप्ति समझते हैं, तो उसे ] भी जानना कठिन ही है । इसका कारण यह है कि 'सभी उपाधियाँ प्रत्यक्ष ही होंगी' - यह नियम रखना असंभव है; यद्यपि प्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव भी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है, किन्तु अप्रत्यक्ष ( न दिखलाई पड़ने वाली ) वस्तुओं का अभाव भी अप्रत्यक्ष ही रहेगा ( = किसी वस्तु के अभाव का ज्ञान तभी होता है जब उस वस्तु को जानते हैं - अभावज्ञानं प्रतियोगिज्ञानसापेक्षम् अर्थात् अभाव का ज्ञान अपने विरोधी = भाव के ज्ञान की अपेक्षा रखता है ) । इसलिए [ अप्रत्यक्ष वस्तुओं के अभाव को जानने के लिए ] दूसरे प्रमाण - अनुमानादि की आवश्यकता होगी और तब फिर वही उपर्युक्त ( अनवस्था ) दोष आ जायगा जिसे हम हटा नहीं सकते । ( कहने का अभिप्राय यह है - यदि व्याप्ति का लक्षण 'उपाधिहीनता' हो तो इसे सभी प्रकार की उपाधियों से रहित होना चाहिए । उपाधि का अभाव तभी जाना जा सकता है जब उपाधि का ज्ञान हो । उपाधियाँ सभी प्रत्यक्ष ही नहीं रहतीं --- कुछ द्रव्यरूप-धर्मी, कुछ गुणादिरूप-धर्म, कुछ मूर्त, अमूर्त, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष- -इस प्रकार कई तरह की हो सकती हैं । जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ कुछ शङ्कित और निश्चित भी होती हैं । प्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव तो प्रत्यक्ष होगा, किन्तु अप्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव अप्रत्यक्ष ही होगा । अप्रत्यक्ष का ज्ञान अनुमान से ही होगा और अनुमान में उपाधि - हीन सम्बन्ध ( व्याप्ति ) की पुनः अपेक्षा होगी । फिर उस व्याप्ति के लिए तीसरा अनुमान और उस अनुमान के लिए पुनः व्याप्ति - इस प्रकार यह तर्कशृंखला अनन्तकाल तक चलती रहेगी ) । उपाधि का दूसरा लक्षण - इसके अलावे [ दूसरा दोष भी है - ] उपाधि का यह लक्षण स्वीकार करना चाहिए -- जो साधन ( हेतु Middle term ) को सदा व्याप्त न करने पर भी साध्य ( Major term ) के साथ समन्व्याप्ति रखे [ व्याप्ति दो प्रकरा
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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