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सर्वदर्शनसंग्रहे
की होती है--सम और विषम । दोनों वस्तुओं की व्याप्ति बराबर-बराबर रहने पर समव्याप्ति होती है जैसे ( Man ) और ( Rational animal ) में । विषम व्याप्ति जैसे धम और अग्नि में यहाँ धूम के साथ अग्नि की व्याप्ति होने पर भी अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति नहीं है क्योंकि धूम नहीं रहने पर भी अग्नि हो सकती है ] । ऐसा कहा भी है
विशेष-उपाधि का उपर्युक्त लक्षण ही सभी न्याय-ग्रन्थों में स्वीकृत किया गया है। भाषा-परिच्छेद ( १३८ ) में कहा गया है
साध्यस्य व्यापको यस्तु हेतोरव्यापकस्तथा ।
स उपाधिर्भवेत्तस्य नि कर्षोऽयं प्रदर्श्यते ॥ अर्थात् साध्य के रूप में स्वीकृत वस्तु का जो व्यापक हो तथा साधन के रूप में स्वीकृत वस्तु का व्यापक न हो वही उपाधि है ( मुक्तावली० )। तर्कसंग्रह में तो मानो माधव के शब्द ही हैं ( पृ० १५ )-'साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधिः । साध्यसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साध्यव्यापकत्वम् । साधनवन्नि ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वम् । यथा 'पर्वतो धूमवान्, वह्निमत्त्वात्' इत्यत्र आर्टेन्धनसंयोग उपाधिः । तथाहि, 'यत्र धूमस्तत्रार्दैन्धनसंयोगः' इति साध्यव्यापकत्वम् । 'यत्र वह्निस्तत्राट्रॅन्धनसंयोगो नास्ति, अयोगोलके आर्टेन्धनसंयोगाभावात्' इति साधनाव्यापकत्वम् । एवं साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वात् आईन्धनसंयोग उपाधिः ।' साध्य का व्यापक कोई तभी बन सकता है जब कि साध्य के समान आधार वाली वस्तु के अत्यन्ताभाव का विरोधी हो, जैसे
सभी वह्निमान् पदार्थ धूमवान् हैं, पर्वत वह्निमान है, .. पर्वत धूमवान् है,
इस अनुमान में 'भोंगी लकड़ी से संयोग' उपाधि है जो निष्कर्ष को भी सोपाधिक ( Conditional ) बना देती है। यह उपाधि 'धमवान्' ( साध्य Major term ) का व्यापक है कि जहाँ धम होगा अग्नि में भींगी लकड़ी का संयोग भी अवश्य होगा। इस तरह उपाधि साध्य का व्यापक होती है। साधन का अव्यापक कोई तब हो सकता है जब साधन ( हेतु Middle term ) से युक्त वस्तु में रहने वाले के अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी हो जैसे उपर्युक्त अनुमान में-'जहाँ अग्नि है वहाँ भींगी लकड़ी नहीं होती, लोहे के गोले ( या बिजली ) में भोंगी लकड़ी नहीं रहती है'-~-इस प्रकार साधन ( वह्निमान् ) में उपाधि की अव्याप्ति रहती है। इसी लक्षण को आचार्यों ने कहा भी है। स्मरणीय है कि उपाधियुक्त अनुमान में व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है ।