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चार्वाक दर्शनम्
प्रत्यक्षमेव किल यस्य कृते प्रमाणं
भूतार्थवादमथ यो नितरां निविष्टः । वेदादिनिन्दनपरः सुखमेव धत्ते
सोऽयं बृहस्पतिमुनिर्मम रक्षकोऽस्तु ॥-ऋषिः
( १. चार्वाक और लोकायतिक-नामकरण ) अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसप्रदत्वमभिधीयते ? बृहस्पतिमतानुसारिणा नास्तिकशिरोमणिना चार्वाकेण तस्य दूरोत्सारितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चार्वाकस्य चेष्टितम् । प्रायेण सर्वप्राणिनस्तावत्
यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? ॥ इति लोकगाथाम् अनुरुन्धाना नीतिकामशास्त्रानुसारेण अर्थकामौ एव पुरुषाथी मन्यमानाः, पारलौकिकमर्थम् अपह्लवानाः, चार्वाकमतमनुवर्तमाना एवानुभूयन्ते । अत एव तस्य चार्वाकमतस्य 'लोकायतम्' इत्यन्वर्थम् अपरं नामधेयम् ॥
मंगलाचरण के पहले श्लोक में परमेश्वर को 'निःश्रेयसनिधि' ( मुक्ति का भाण्डार ) कहा गया है । आप परमेश्वर को मुक्ति प्रदान करने वाला कसे कहते हैं ? बृहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान ) चार्वाक ने तो इस तरह की धारणा ही उखाड़ फेंको है। चार्वाक के मत का खण्डन करना भी कठिन है । प्रायः संसार में सभी प्राणी तो इसी लोकोक्ति पर चलते हैं-'जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके; जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है ? सभी लोग नीतिशास्त्र और के कामशास्त्र अनुसार अर्थ (धन-संग्रह ) और काम ( भोग-विलास ) को ही पुरुषार्थ समझते हैं, परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं इस तरह मालूम होता है [ बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः, चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं ] इसलिए चार्वाक-मत का दसरा नाम अर्थ के अनुकल ही हैलोकायत ( लोक = संसार में, आयत = व्याप्त फैला हुआ )।
विशष-शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं । लोका