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________________ ६८८ सर्वदर्शनसंग्रहे [ अब अपने कथन की पुष्टि के लिए दृष्टान्त देते हैं-] दोष से दूषित केवड़े का बीज बड़ के पेड़ का अंकुर नहीं उत्पन्न कर सकता अथवा तेल से कलुषित धान का बीज धान से भिन्न किसी पौधे के अंकुर का उत्पादन करने में समर्थ नहीं है। [ दूसरे के अंकुर का उत्पादन तो दूर रहा ] वह अपना कार्य भी नहीं करता। [ फल यह हुआ कि दोषयुक्त होने से भो इन्द्रियां मिथ्याज्ञान का उत्पादन नहीं कर सकतीं । दोषों के रहने से ज्ञानोत्पादन का कार्य बन्द हो सकता है । ऐसा नहीं कि एक ज्ञान को छिपाकर दूसरा मिथ्याज्ञान ये दोष उत्पन्न कर दें।] अब एक शंका है कि दावाग्नि से जले हुए बेंत के बीज में केले का काण्ड (धड़) उत्पन्न करने की शक्ति देखी जाती है उसका क्या उतर देंगे ? वास्तव में यह शंका युक्तियुक्त नहीं है । कारण यह है कि जल जाने पर तो वह बेंत का बीज रहा नहीं (बेंत का उत्पादन करने की सामर्थ्य उसमें रही नहीं)। इसलिए 'दोष विपरीत कार्य उत्पन्न कराने की शक्ति रखते हैं'-इसका उदाहरण तो हुआ ही नहीं। [ बात यह है कि दोषों के कारण विपरीत कार्य-जैसे सीपी में रजत का ज्ञान उत्पन्न करने के जैसा कार्य-उत्पन्न होने का उदाहरण तभी सम्भव था जब जले हुए बेंत के बीज में बेंत को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रहती, फिर भी वह बेंत उत्पन्न न करके केले की धड़ उत्पन्न करता।] न च भस्मकदोषदूषितस्य कौक्षयस्याशुशुक्षणेः बह्वन्नपचनसामयं दृष्टमित्येष्टव्यम् । अशितपीताद्याहारपरिणती जाठरस्य जातवेदसः शक्तत्वात् । तदुक्तम् १७. अयथार्थस्य बोधस्य नोत्पत्तावस्ति कारणम् । दोषाश्चेन्न हि दोषाणां कार्यशक्तिविघातता ॥ १८. भस्मकादिषु कार्यस्य विधातादेव दोषता। अग्नेहि रसनिष्पत्तिः कार्य जठरवर्तिनः ॥ (प्रकरण प० ४।७३-७४ ) इति । [ आप अपने कथन को पुष्टि के लिए ] यह उदाहरण भी नहीं दे सकते कि भस्मकदोष ( अधिक अन्न पचानेवाला रोग) से दूषित होने पर जठराग्नि ( कौक्षेयक = जठरसम्बन्धी, कुक्षि = पेट, आशुशुक्षणि = अग्नि ) में बहुत अधिक अन्न पचाने की शक्ति देखी जाती है ( अर्थात् दूषित अग्नि में अन्न पचाने की सामर्थ्य है ) खाये-पीये गये आहार की परिणति, (परिपाक, रक्तादि का निर्माण में जठराग्नि अपने आप ही समर्थ होती है। [ आहार अधिक हो जाने से अग्नि में जो मन्दता उत्पन्न होती है उसे भस्मक-रोग रोक देता है, मन्दता आने नहीं देता । किन्तु साथ-साथ रक्तादि रसों के निर्माण में भी प्रतिबन्ध लग जाता है।]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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