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________________ शांकर-दर्शनम् ६८९ इसे कहा गया है - 'अयथार्थ ( मिथ्या ) ज्ञान ( जैसे सीपी में चांदी का ज्ञान ) की उत्पत्ति के लिए कोई कारण ही नहीं मिलता । यदि दोषों को कारण मानें तो यह युक्त नहीं, क्योंकि वे दोष कार्योत्पादन की शक्ति में केवल प्रतिबन्ध कर सकते हैं [ अपूर्व शक्ति का उत्पादन नहीं । ] ॥ १७ ॥ भस्मक आदि रोगों का जो आप दोष मानते हैं वह केवल इसलिए कि वे [ रुधिरोत्पादन रूपी ] कार्य के प्रतिबन्धक हैं, क्योंकि जठरवर्ती अग्नि का रसनिष्पादन करना तो स्वाभाविक कार्य ही है ॥ १८ ॥ ' ( प्रकरणपचिका ४।७३-७४ ) | ( ११ ख. असत् अर्थ का ज्ञान नहीं होता ) अपि चासत्यप्यर्थे ज्ञानप्रादुर्भावाभ्युपगमे समीचीनस्थलेऽपि ज्ञानानां स्वगोचरव्यभिचारशङ्काऽङ्कुरसम्भवेन निरङ्कुशो व्यवहारो लुप्यते । तदाह १९. यदि चार्थं परित्यज्य काचिद् बुद्धिः प्रकाशते । व्यभिचारवति स्वार्थे कथं विश्वासकारणम् ॥ ( प्रक० प० ४।६६ ) इति । इसके अतिरिक्त यह आपत्ति भी होगी कि यह आप असत् या अविद्यमान वस्तु के विषय में ज्ञान की उत्पत्ति मानेंगे ( = चांदी के न रहने पर भी चांदी का ज्ञान मानेंगे ) तो जहाँ ठीक ( Correct ) ज्ञान होता है उस स्थल में भी ज्ञान अपने विषय ( गोचर ) से व्यभिचरित होने लगेगा ( अर्थात् विषय न रहने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति होने लगेगी ) से ऐसी शंका के अंकुरों के उत्पन्न होने से संसार में निरंकुश ( निःशंक ) व्यवहार का बिल्कुल अभाव ही हो जायगा । [ यह अभिप्राय है कि यह प्रमाण माने जानेवाले व्यक्ति भी चांदी दिखाकर कहें कि यह चांदी है तो शंका हो सकती है कि यह आप्तज्ञान कभी विषयाभाव में भी तो हो सकता है । फलतः चांदी का निश्चय न हो सकने से उसकी ओर लोगों की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । सारा ज्ञान शंकायुक्त हो जायगा और सभी व्यवहार नष्ट हो जायेंगे । परन्तु वस्तुस्थिति कुछ दूसरी ही है । सभी व्यवहार निश्चित ज्ञान के बाद ही होते हैं । इसे कहा है- 'यदि कोई ज्ञान वस्तु की अपेक्षा रखे बिना ही प्रकाशित हो तो वह ज्ञान जब अपने विषय को लेकर ही व्यभिचरित ( Inconsistent ) होता है तो कैसे विश्वसनीय हो सकता है ?' [ चाँदी न होने पर भी यदि उसका ज्ञान हो जाय तो वह व्यभिचारी है, नियम का पालन नहीं करता -- ज्ञान किसी । वह विषय-विहीन ज्ञान अपने विषयरूप पदार्थ की निष्कर्ष यह निकला कि अविद्यमान रजत प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है, वह वस्तुतः स्मरण ज्ञान है | अतः 'इदं रजतम्' में प्रत्यक्ष और स्मरण इन दोनों ज्ञानों को स्वीकार करेंयह मीमांसकों का सुझाव और मान्यता है । ] विषय का ही होता है यह नियम सत्ता का बोध कैसे करायेगा ? ४४ स० सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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