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सर्वदर्शनसंग्रहेप्रतिपादन करते हैं, क्योंकि 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' आदि वाक्य इसके साक्षी हैं, तो फिर ये वाक्य शास्त्र ही नहीं हैं, क्योंकि न तो इन वाक्यों से प्रवृत्ति का ही बोध होता है और न निवृत्ति का ही। इस प्रकार आगम को ब्रह्म के प्रमाण के रूप में रखना भूल है। ]
न चैतेषां स्वरूपपरत्वे प्रयोजनमस्ति। श्रुतवेदान्तार्थस्यापि पुंसः सांसारिकधर्माणामनिवत्तेः। तस्माद्वेदान्तानामप्यात्मा ज्ञातव्य इति समाम्नातेन विधिनैकवाक्यतामाश्रित्य कार्यपरतवाश्रयणीयेति सिद्धम् । ततश्च केवलसिद्धरूपे ब्रह्मणि वेदान्तानां प्रामाण्यं न सिध्यतीति चेत् ।
[ पूर्वपक्ष का उपसंहार करते हुए मीमांसक कहते हैं कि ] इन वेदान्त-वाक्यों का [विधि से सम्बन्ध न करने के कारण ] अपने रूप के बोध के लिए कोई प्रयोजन ( उपयोग ) नहीं है । वेदान्त ( उपनिषदों ) के वाक्यों का अर्थ सुन लेने के बाद भी पुरुष से सांसारिक धर्मों की निवृत्ति नहीं हो होती है। इसलिए वेदान्त-वाक्यों में भी 'आत्मा ज्ञेय है ( जानना चाहिए )' इस प्रकार के समाम्नात ( कथित ) विधि से एकवाक्यता दिखाकर उन वाक्यों को कार्य ( कर्तव्य, विधि ) से ही सम्बन्ध माना जाय, [ सिद्ध ब्रह्म का प्रतिपादक नहीं ] यह सिद्ध हो गया ।
इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि केवल सिद्ध ( साध्य नहीं ) के रूप में ब्रह्म के विषय में वेदान्त-वाक्य प्रामाणिक नहीं हो सकते ।
(९ ख. सिद्ध अर्थ में शब्दों की व्युत्पत्ति-उत्तरपक्ष ) अत्र प्रतिविधीयते । न तावत्सिद्धे व्युत्पत्त्यसिद्धिः। प्रागुन्नीतया नीत्या 'पुत्रस्ते जातः' इति वाक्यात्सिद्धपरादपि व्युत्पत्तिसिद्धेः। न च परिशेषावधारणानुपपत्तिः। प्रियासुखप्रसवादेरपि सम्भवादिति भणितव्यम् । पुत्रपदाङ्कितपटप्रदर्शनवत्प्रियासुखप्रसवादिसूचकाभावात् । __ अब हम उसका प्रत्युत्तर देते हैं। पहले ( तावत् ) यह समझें कि सिद्ध अर्थ में शब्दों की व्युत्तति नहीं हो सकती है, यह बात नहीं है। जिस नियम का उन्नयन ( प्रकाशन ) पहले ही किया गया है, उसी से 'पुत्रस्ते जातः' इस सिद्ध वाक्य से भी व्युत्पत्ति की सिद्धि होती है । यह भी नहीं सोचना चाहिए कि [ 'पुत्रस्ते जातः' का अर्थ करने में ] परिशेष के द्वारा [ पुत्रजन्म का अर्थ ] निर्णय करना सम्भव नहीं है। आपने इसका ( परिशेष का निर्णय न हो सकने का ) कारण बतलाया है कि पत्नी को सुख से प्रसव हो जाना आदि भी कारण के रूप में सम्भव हो सकते हैं । परन्तु यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि पुत्र शब्द से अंकित वस्त्र का प्रदर्शन करनेवाले [ संदेशवाहक ] के द्वारा पत्नी को सुख से प्रसव होने आदि की सूचना नहीं मिलती । [ यह कारण एकमात्र पुत्रजन्म में ही केन्द्रित है । हर्ष का कारण इसीलिए पुत्रजन्म ही है । इसके फलस्वरूप सिद्ध वाक्य से भी शक्ति (व्युत्पत्ति)