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________________ सांकर चर्शनम् ६७७ है, ऐसी दशा में पुत्र के जन्म का ही अर्थ केसे लेते हैं ? ऐसी बात नहीं है, क्योंकि राम ने मोहन की भार्या को आसन्न-प्रसवा के रूप में देखा था। इससे उसने 'पुत्रस्ते जातः' वाक्य का अर्थ 'पुत्रजन्म' ही निश्चित किया। निष्कर्ष यह निकला कि सिद्ध वाक्यों में भी शक्तिग्रह होता है अतः वे भी प्रमाण हैं । यह वेदान्तियों की ओर से मीमांसकों को उत्तर दिया गया है।] [ अब मीमांसक इस अवान्तर पक्ष का उत्तर दे रहे हैं। ] ऐसी बात नहीं है । कारण यह है कि जिस प्रकार पुत्रजन्म को हर्ष का कारण मानकर [ 'पुत्रस्ते जातः' वाक्य का अर्थ ] निश्चय करते हैं, उसी प्रकार पत्नी का सुख से प्रसव होना आदि भी [हर्ष के कारण हो सकते हैं उन्हें हटाकर ] परिशेष के नियम से [ पुत्र के जन्म का ] निश्चय करना सम्भव नहीं है । [ पुत्रजन्म को हर्ष का कारण तभी माना जा सकता है जब हर्ष के दूसरे कारण असम्भव हो जायं तथा केवल पुत्रजन्म ही कारणों की शृंखला में बचा रहे । ऐसी बात नहीं कि हर्ष के प्रसव सम्बन्धी ही दूसरे कारण न हों । कन्या उत्पन्न होने पर भी सुख से प्रसव हो जाने पर या अच्छे लग्न में प्रसव होने पर भी हर्ष हो सकता है । दूसरी बात यह है कि 'पुत्रस्ते जातः' भी सिद्धवाक्य नहीं है। वक्ता के तात्पर्य से 'तुम जानो' इस विधिबोधक शब्द का अध्याहार किया जा सकता है।] 'पुत्रस्ते जातः' इत्यादि सिद्ध अर्थ का बोध करानेवाले प्रयोगों में 'द्वारं द्वारम्' ( = द्वारं पिधेहि, दरवाजा लगाओ ) इत्यादि वाक्यों की तरह कार्य [ विधिबोधक शब्द ) का अध्याहार करके प्रयोग की सिद्धि की जा सकती है। [किसी वाक्य में विधि मुख्य है, उसके बोधक पदों का अध्याहार करना सर्वथा उचित है। तात्पर्य रहने पर तो विधिबोधक पदों का अध्याहार करना आवश्यक ही है। अब वेदान्त-वाक्यों पर आरोपण होगा कि वे शास्त्र ही नहीं हैं शास्त्र में विधि और निषेध दो ही बातें रहती हैं-ऐसा करो, ऐसा मत करो।] शास्त्रत्वप्रसिद्धचा च न वेदान्तानां सिद्धार्थपरत्वम् । प्रवृत्तिनिवृत्तिपराणामेव वाक्यानां शास्त्रत्वप्रसिद्धः। तदुक्तं भट्टाचार्यः ८. प्रवत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा । पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते ॥ इति । जिस तरह शास्त्र की प्रसिद्धि है उस तरह से तो वेदान्त-वाक्यों को सिद्ध अर्थ से सम्बन्ध मानना ही नहीं चाहिए। जो वाक्य प्रवृत्ति या निवृत्ति का उपदेश करते हैं वे शास्त्र के रूप में प्रसिद्ध होते हैं । इसे कुमारिल भट्ट ने कहा है-'नित्य ( वेद ) या कृतक ( अनित्य सूत्र आदि ) शब्द के द्वारा पुरुषों की प्रवृत्ति या निवृत्ति का जो उपदेश करता है वही शास्त्र कहलाता है।' [ शास्त्र के रूप में वेदान्त-वाक्यों की प्रसिद्धि है-इसलिए वे सिद्ध अर्थ अर्थात् ब्रह्म के प्रतिपादक नहीं हो सकते । यदि आप कहें कि सिद्ध ब्रह्म का
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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