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________________ ६६४ सर्वदर्शनसंग्रहे( व्याप्य ) और भेदज्ञान ( व्यापक ) में व्याप्ति सम्बन्ध है । जहाँ-जहाँ गौणता है वहाँ-वहाँ भेदज्ञान रहता है । व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति भी हो जायगी।] विशेष-भेद (पूर्वपक्षी ) और अभेद ( वेदान्ती ) का झगड़ा अभी कहाँ समाप्त हुआ है ? पूर्वपक्षियों का अखाड़ा अभी यथापूर्व लगा हुआ है। शंकराचार्य भी उन्हें अच्छी तरह पीस देने की चिन्ता में लगे हैं । पूर्वपक्षी भेदसिद्धि के लिए दूसरा तर्क देते हैं । (६ क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि-भेद का खण्डन ) नन्वभिज्ञया भेदसिद्धिर्मा सम्भून्नाम। प्रत्यभिज्ञया तु सोऽहमित्येवंरूपया तसिद्धिः सम्भविष्यतीति चेत्-न । विकल्पासहत्वात् । किमियं प्रत्यभिज्ञा पामराणां स्यात् परीक्षकाणां वा ? नाद्यः। देहव्यतिरिक्तात्मैक्यमवगाहमानायाः प्रत्यभिज्ञाया अनुदयात् । प्रत्युत श्यामस्य लौहित्यवत्कारणविशेषादल्पस्यापि महापरिमाणत्वमविरुद्धमनुभवतां तदेह एव तस्याः सम्भवाच्च। एक शंका की जाती है कि मान लिया कि [ 'मैं स्थूल हूँ' इस प्रतीति के विरुद्ध होने के कारण 'मेरा शरीर'—इस ] अभिज्ञा या ज्ञान से [ जीव और शरीर के बीच ] भेद को सिद्धि नहीं होती है। किन्तु 'वह मैं हूँ' (सोऽहम् ) इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) से तो उस भेद की सिद्धि सम्भव है ? [ सः = परमात्मा, अहम् = जीवात्मा । उन दोनों की एकता तभी सम्भव है जब आत्मा को देह से भिन्न माने । यदि देह ही आत्मा होती तो वह कभी भी परमात्मा नहीं बन सकती थी। तो देह और आत्मा में भेद है, अत: 'अहम्' की प्रतीति को गौण कहा जा सकता है।] [पूर्वपक्षियों की इस शंका पर शंकर कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं है । नीचे दिये गये विकल्पों में किसी को सहने की क्षमता उक्त तर्क में नहीं है । अच्छा, यह प्रत्यभिज्ञा क्या मूरों को होती है या परीक्षकों ( विद्वानों) को ? मूों को तो वह प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती जिसमें देह से भिन्न आत्मा की [ परमात्मा से ] एकता प्रतिभासित हो। [ मूर्ख लोग देह से भिन्न जीवात्मा की प्रतीति नहीं कर सकते । किन्तु प्रत्यभिज्ञा में देहभिन्न जीवात्मा की परमात्मा से एकता प्रतीत होती है अतः मूर्ख उस ज्ञान से वञ्चित हैं । अब शंकराचार्य अपने ढंग से 'सोऽहम्' की व्याख्या करते दिखलाई पड़ते हैं। ] बल्कि किसी विशेष कारण से जैसे काला पदार्थ लाल हो जाता है उसी तरह छोटी वस्तु भी बहुत बड़ा परिमाण ( आकार ) धारण कर लेती है, जिसका विरोध नहीं दिया जा सकता। इस तरह का अनुभव करनेवाले लोगों को तो देह ( देहरूपी जीवात्मा ) में प्रत्यभिज्ञा हो सकती है । [ अभिप्राय यह है कि अग्नि-संयोग से काला घड़ा लाल हो जाता है, मिट्टी जल आदि के संयोग से छोटा बीज बड़ा वृक्ष बन जाता है। वैसे ही देहरूपी जीवात्मा भी कारण विशेष से परमात्मा बन जाती है । ऐसी
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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