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________________ बौद्ध-दर्शनम् प्रमाणं न भवतीत्येतावन्मात्रमुच्यते, तत्र न किंचन साधनमुपन्यस्यते, उपन्यस्यते वा ? न प्रथमः। अशिरस्कवचनस्योपन्यासे साध्यासिद्धः। 'एकाकिनी प्रतिज्ञा हि प्रतिज्ञातं न साधयेत् ।' इति न्यायात् । नापि चरमः। अनुमानं प्रमाणं न भवतीति ब्रवाणेन वचनप्रमाणमनभ्युपगच्छता त्वया स्वपरकीयशास्त्रे प्रामाण्येनोपगृहीतस्य वचनस्योपन्यासे मम माता वन्ध्येतिवद् व्याघातापातात् ॥ यदि [ इतना होने पर भी ] कोई व्यक्ति अनुमान-प्रमाण की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करता है तो उससे इस प्रकार [ द्विविधात्मक Dilemmatic ] प्रश्न पूछे– “आप केवल 'अनुमान-प्रमाण नहीं है' इतना भर कहते हैं, इसमें कोई हेतु ( साधन, प्रमाण) उपस्थित नहीं करते हैं या करते हैं ?" ( १ ) यदि पहली बात [ पर अड़ते हैं तो ] ठीक नहीं। किसी सिद्धान्त को बिना कारण के रखने में ] बिना सिर या हेतु के वाक्य उपस्थित करने में साध्य ( Major term ) की सिद्धि होती ही नहीं। ( अनुमान में किसी वाक्य को निगमन में रखने के लिए उचित और उपाधिहीन हेतु की आवश्यकता है, उसके नहीं रहने से अनुमान नहीं होगा। पर्वत में अग्नि ( साध्य ) सिद्ध करने के लिए उसमें धूमत्त्व ( हेतु साधन ) रखना ही पड़ेगा । अशिरस्क-वचन = बिना साधन का वाक्य, अप्रामाणिक बात ) । न्याय ( उक्ति) भी है-अकेली प्रतिज्ञा ( स्वीकृति ) स्वीकृत वस्तु को सिद्ध नहीं करती' ( = केवल सिद्धान्त रख देने से कि अनुमान प्रमाण नहीं है यह सिद्ध नहीं हो जायगा प्रत्युत इसके लिए साधन देना पड़ेगा। यदि साधन नहीं देते तो आपको यह बात गलत हो जायगी कि अनुमान प्रमाण नहीं है अर्थात् अनुमान का आप भी प्रमाण स्वीकृत करेंगे।) (२) दूसरा पक्ष [ कि अनुमान को प्रमाण न मानने के लिए साधन देना चाहिएयह ] भी ठीक नहीं । कारण यह है कि जब आप लोग कहते हैं-'अनुमान प्रमाण नहीं होता है' तब तो वचन ( = शब्द-प्रमाण ) को भी स्वीकार नहीं ही करते हैं, ( क्योंकि अनुमान-प्रमाण मानने के बाद ही आप्त-पुरुषों की बात-शब्द-प्रमाण को स्वीकृत कर सकते हैं ) । दूसरी ओर आपकी स्थिति है कि अपने से भिन्न दूसरों के शास्त्रों में प्रमाणरूप से स्वीकृत 'वचन' या शब्द-प्रमाण का उपयोग कर रहे हैं ( यदि आप अनुमान को प्रमाण नहीं मानकर कुछ साधन देते हैं तो दूसरों की लीक पर चलने का दोषारोपण आप पर होगा। कम-से-कम न्यायशास्त्र की विधि को प्रमाणिक मानना होगा और उसकी बातों को यथावत् स्वीकार करना शब्द-प्रमाण को मानना है)। ऐसा करने पर व्यावहारिक असंगति होगी जैसी 'मेरी माता वळ्या है' इस वाक्य होती है। ( अभिप्राय यह है कि यदि माता है तो वन्व्या नहीं, यदि वन्य्या है तो माता नहीं । दोनों की स्थिति एक दशा में असम्भव है । उसी प्रकार अनुमान को प्रमाण नहीं मानते तो शब्द को भी नहीं
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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