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सर्वदर्शनसंग्रहेमानना होगा लेकिन ये पूर्वपक्षी-चार्वाक आदि-अनुमान की प्रामाणिकता काटने के लिए और भी बड़े प्रमाण-प्रत्यक्ष से दूर प्रमाण शब्द का आश्रय लेते हैं, यह व्यावहारिक असंगति है)।
किं च प्रमाणतदाभासव्यवस्थापनं तत्समानजातीयत्वादिति वदता भवतैव स्वीकृतं स्वभावानुमानम् । परगता विप्रतिपत्तिस्तु वचनलिङ्गनेति ब्रुवता कार्यलिङ्गकमनुमानम् । अनुपलब्ध्या कञ्चिदर्थं प्रतिषेधयतानुपलब्धिलिङ्गकमनुमानम् । तथा चोक्तं तथागतैः
२. प्रमाणान्तरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः।
प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ।। इति । पराक्रान्तं चात्र सूरिभिरिति ग्रन्थभूयस्त्वभयादुपरम्यते ।
यही नहीं, [ तीन तरह के अनुमान तो आप स्वयं स्वीकार करते हैं । ] प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था उसके सामानजातीय होने के कारण होती है-यह कहते हुए आप ही स्वभावानुमान को स्वीकार करते हैं । प्रमाण और (प्रमाणाभास की व्यवस्थाराह में जाते हुए जब जल दिखलाई पड़ता है तब यह जलज्ञान प्रमाण है कि प्रमाणभास, ऐसा सन्देह होता है । अगर ठीक निकला तो प्रमाण मानेंगे क्योंकि, 'यथार्थानुभवः प्रमा', और 'प्रमायाः करणं प्रमाणम्' । यदि जल नहीं मिला तो प्रमाणाभास मानेंगे। यह निर्णय कैसे करेंगे ? विधि स्वभावानुमान की होगी और साधन रहेगा समानजातीयत्व । (१) प्रमाण-जब एक बार ऐसा ज्ञात हुआ था तब उसमें जल निकला था, इस बार भी उसी तरह का या समानजातीय ज्ञान है, यह जलज्ञान भी प्रमाण है। यह निश्चय स्वभावानुमान से आप करते हैं, दूसरी ओर, (२) प्रमाणाभास-जब एक बार ऐसा ज्ञान हुआ था तो जल नहीं मिला था, इस बार भी सजातीय होने से जल नहीं मिलेगा--अतः यह भी प्रमाणाभास है। यहाँ भी स्वभावानुमान की आवश्यकता पड़ी । स्वभावानुमान में पक्ष, साध्य और लिंग तथा तीन अवयव-वाक्य रहते हैं । )
दूसरे 'विरोधियों की विपरीत सम्मति (विरुद्ध सिद्धान्त या ज्ञान ) का ज्ञान उनके वचन-रूपी लिंग या साधन से होता है' यह कहकर [ आप ] कार्य को देखकर कारण को जाननेवाला 'कार्यलिंगक' अनमान भी स्वीकार करते हैं। [ अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुसार हो बोलता है। ज्ञान कारण है और उसके वचन कार्य । चार्वाक लोग परपक्षियों के शब्दों को सुनकर उनकी मान्यताओं का अनुमान कर लेते हैं । यह भी अनुमान ही हुआ, भले ही इसमें कार्य ( वचन ) लिंग या हेतु का काम कर रहा है। विपक्षियों की विप्रतिपत्ति (विरुद्ध सिद्धान्त ) साध्य है। ]
तीसरे, जब आप किसी वस्तु की अनुपलब्धि या अभाव देखते हैं तथा उसके आधार पर किसी पदार्थ की सत्ता का निषेध करते हैं ( जैसे--आकाशतत्त्व, आत्मा, मोक्ष, पर
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