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________________ सांस्य-वर्शनम् ५३७ पुरुष दोनों में कुछ भी नहीं है । कहा है-'पुरुष न तो प्रकृति ( कारण ) ही है और न विकृति ( कार्य ) ही' ( सां० का० ३ )। पुरुष कूटस्थ ( अचल, निर्विकार ), नित्य तथा परिणाम ( विकास ) से रहित है-इसीलिए न तो वह किसी का कारण है, न किसी का कार्य। विशेष-सभी मनुष्यों में जो चेतन-तत्त्व है वही पुरुष है । यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, कुछ कार्य नहीं कर सकता है। प्रकृति के साथ संपृक्त होने के कारण यह बन्धन में पड़ा रहता है, जिस समय प्रकृति और पुरुष का विवेक हो जाता है, उसी समय मोक्ष की प्राप्ति होती है । सांख्य में पुरुषों की बहुलता सिद्ध की जाती है । यदि बहुलता नहीं होती तो एक पुरुष के सुखी, दुःखी, मूढ, बद्ध या मुक्त हो जाने से सभी पुरुष वैसे ही हो जाते । एक पुरुष के मरने पर सभी मरते, जन्म लेने पर सबों का जन्म होता आदि । पुरुषों को मुक्त करने के ही लिए प्रकृति संसार के रंगमंच पर नृत्य करती है। प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध का वर्णन आगे करेंगे । अभी प्रमाणों का वर्णन करते हैं। (६. सांख्य-प्रमाण-मीमांसा ) एतत्पञ्चविंशतितत्त्वसाधकत्वेन प्रमाणत्रयमभिमतम् । तदप्युक्तम्६. दृष्टमनुमानमाप्तवचनं च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि । ( सां० का० ४ ) इति। इन पचीस तत्त्वों को सिद्ध करनेवाले तीन प्रमाण सांख्य-दर्शन में माने जाते हैं । वे भी इस रूप में कहे गये हैं-'प्रत्यक्ष ( दृष्ट ), अनुमान और शब्द प्रमाण ही सभी प्रमाणों के अन्तर्भूत हो जाने से तीन प्रमाण ही मान्य हैं । चूंकि प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है [ अतः पहले प्रमाणों का ही वर्णन करके बाद में प्रमेयों का प्रतिपादन किया जायगा।' (सां० का० ४)। विशेष-सांख्य दर्शन में तीन प्रमाणों को मान्यता मिलती है । अन्य प्रमाणों को (उपमान, अर्थापति, अनुपलब्धि आदि ) को इन्हीं तीनों में अन्तर्भूत कर लिया जाता है। ईश्वरकष्ण ने पांचवीं कारिका' में इन तीनों प्रमाणों के लक्षण दिये हैं जिनकी व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने विस्तृत रूप से की है। (१प्रत्यक्ष (दृष्ट)-दृष्ट का लक्षण देने में 'प्रतिविषयाध्यवसाय' शब्द का प्रयोग किया गया है । पृथिवी आदि और सुखादि विषय हैं, क्योंकि ये विषय ( बुद्धि ) को बांध लेते हैं (वि+/सि ), अपने आकार में रंगकर उस बुद्धि को भी तद्रूप बना देते १. प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । ___ तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु ॥ ( सां० का०५)। -
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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