________________
५३६
सर्वदर्शनसंग्रहेकेवल विकृति के रूप में विद्यमान तत्त्वों में आकाश (वियत् ) आदि पांच महाभूत तथा ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । जैसा कि कहा भी है-'सोलह तत्त्वों का समुदाय केवल कार्य ( विकार ) ही है' ( सां० का० ३) । 'षोडशक' का अर्थ है सोलह संख्या से परिमित गण ( समुदाय ), जो केवल कार्य ही है, प्रकृति अर्थात् कारण नहीं। यद्यपि पृथिवी आदि तत्त्व गो, घट, वृक्ष आदि के कारण भी हैं किन्तु ये पदार्थ पृथिवी आदि से तत्त्व में पृथक नहीं हैं—यही कारण ही है कि पृथिवी आदि को कारण ( प्रकृति ) नहीं मानते । अपने से भिन्न तत्त्व का उपादान कारण बननेवाली वस्तु ही यहां पर 'प्रकृति' शब्द से अभिप्रेत है। गौ, घट आदि पदार्थ पृथिवी आदि से पृथक् नहीं हैं, [ यह बात इसी से सिद्ध हो जाती है कि गौ, घट आदि ] उसी प्रकार स्थूल और इन्द्रियग्राह्य हैं, जिस प्रकार पृथिवी । __ तत्र शब्दस्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेभ्यः पूर्वपूर्वसूक्ष्मभूतसहितेभ्यः पञ्चमहाभूतानि वियदादीनि क्रमेणकद्वित्रिचतुष्पञ्चगुणानि जायन्ते। इन्द्रियसृष्टिस्तु प्रागेवोक्त । तदुक्तम्५. प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥
(सां० का० २२ ) इति । उनमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का प्रत्येक तन्मात्र अपने पूर्व के तन्मात्र ( सूक्ष्म भूत ) से युक्त होकर आकाशादि पांच महाभूतों को उत्पन्न करता है जिनमें क्रमशः एक, दो, तीन, चार और पांच गुण रहते हैं। [ शब्द-तन्मात्र से शब्द (एक) गुणवाला आकाश उत्पन्न होता है । शब्दतन्मात्र से युक्त स्पर्शतन्मात्रों से शब्द-स्पर्श (दो) गुणोंवाली वायु उत्पन्न होती है । शब्द और स्पर्शतन्मात्रों से युक्त रूपतन्मात्र से शब्द-स्पर्श-रूप ( तीन ) गुणोंवाला तेजस् उत्पन्न होता है । शब्द, स्पर्श और रूपतन्मात्रों से युक्त रसतन्मात्र से जल उत्पन्न होता है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार गुण रहते हैं । अन्त में शब्द, स्पर्श, रूप और रसतन्मात्रों से युक्त गन्धतन्मात्र से पृथिवी उत्पन्न होती है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पांच गुण रहते हैं । ( वाचस्पति मिश्र) ]
इन्द्रियों की सृष्टि तो पहले ही कह दी गई है। [इसके सार-रूप में सांख्यकारिका में ] कहा गया है-'प्रकृति से महत्-तत्त्व, उसके अहंकार, उससे सोलह तत्त्वों का समुदाय ( पांच तन्मात्र और ग्यारह इन्द्रियाँ ), इस सोलह [ के अन्दर ] के पांच तन्मात्रों से पाँच महाभूत [ उत्पन्न होते हैं ] ( सां०: का० २२ ) ।
(५. प्रकृति-विकृति से रहित पुरुष-तत्त्व ) अनुभयात्मकः पुरुषः। तदुक्तं-'न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः' (सां० का० ३) इति । पुरुषस्तु कूटस्थनित्योपरिणामी न कस्यचित्प्रकृति पि विकृतिः कस्यचिदित्यर्थः।