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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे के बाद मुक्ति का कथन होने से, विश्वास ( = ऐसी मुक्ति में ) न होकर, [ लोगों की ] असंदिग्ध ( विश्वासपूर्वक ) प्रवृत्ति [ छहों दर्शनों में कहे गये उपायों के प्रति ] नहीं हो सकती । यह बात भी वहीं पर ( रसार्णव में ) कही गई है - 'छहों दर्शनों में शरीरनाश के बाद ही मुक्ति का निर्देश हुआ है, वह ( मुक्ति ) हाथ में रखे हुए आंवले की भाँति प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलती, अतः इस शरीर की रक्षा रसों और रसायनों से करनी चाहिए ।' विशेष - वाचोयुक्ति = घोषणा, कथन ( अलुक् समास ), निर्विचिकित्स = निःसंशय, विश्वासपूर्ण । करामलकवत् = हाथ में रखे आंवले की तरह; यह एक लौकिक न्याय है । जब कोई बात प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो जाती है, किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती तब इसका प्रयोग होता है, जैसे- शरीरस्य विनाशः करामलकवत् । रस = पारद से बने हुए योग ( औषधियां ) । रसायन = ऐसी औषधि जिससे वृद्धावस्था न आवे । रसेश्वरदर्शन के विरोध में शंका यह की गई है कि छहों दर्शनों में भी जीवन्मुक्ति का वर्णन है, मिथ्याज्ञान के विनाश के बाद सद्ज्ञान से होनेवाली मुक्ति का निर्देश सभी लोग करते हैं ( रामानुज - आदि इसे नहीं मानते ) । तब रसेश्वर दर्शन का उपक्रम व्यर्थ है । इसके उत्तर में ये कहते हैं—छहों दर्शनों में जीवन्मुक्ति का निर्देश होने पर भी वहाँ शरीरनाश के बाद ही वास्तविक मुक्ति का कथन है । इससे मालूम पड़ता है कि जीवन्मुक्ति के प्रति वे लोग विरसता दिखलाते हैं । लोगों में यह भ्रम हो जायगा कि दो प्रकार को मुक्तियाँ कैसी हैं, वे जीवन्मुक्ति या परा - मुक्ति ( मृत्यु के बाद ) में भी सन्देह करने लग जायेंगे और विश्वास के साथ मुक्ति प्राप्त करने में प्रवृत्ति नहीं दिखलायेंगे । सबसे अच्छा है कि रसरसायन का सेवन करके शरीर को अजर-अमर कर लें और संसार को विश्वास दिलायें । सच तो यह है कि सभी लोग अपनी प्रशंसा करते हैं, दूसरे को निकृष्ट ही समझते हैं । कुलाचार ( तांत्रिक-मत ) में भी कहा है 'जीवन्मुक्तावुपायस्तु कुलमार्गों हि नापरः । ( ३. हर-गौरी की सृष्टि - पारद, अाक ) ३२४ गोविन्दभगवत्पादाचार्यैरपि ४. इति धनशरीरभोगान्मत्वाऽनित्यान्सदेव यतनीयम् । मुक्तौ सा च ज्ञानात्तच्चाभ्यासात्स च स्थिरे देहे ॥ इति । ननु विनश्वरतया दृश्यमानस्य देहस्य कथं नित्यत्वमवसीयत इति चेत् -- मैवं मंस्थाः । षाटकौशिकस्य शरीरस्यानित्यत्वेऽपि रसाभ्रकपदाभिलप्यहरगौरीसृष्टिजातस्य नित्यत्वोपपत्तेः । J पूज्य गोविन्द -: द-भगवान् आचार्यजी भी [ कहते हैं ] - 'इस प्रकार धन, शरीर और विलास को अनित्य (क्षणिक) समझकर मुक्ति के लिए सदा यत्न करना चाहिए, वह
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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