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________________ रसेश्वर-वर्शनम् ( मुक्ति ) ज्ञान से होती है, वह ( ज्ञान ) भी अभ्यास से होता है, अभ्यास तभी सम्भव है जब शरीर स्थायी ( नीरोग ) हो ।' यदि कोई पूछे कि जो देह नश्वर के रूप में दिखाई पड़ती है वह कैसे नित्य बन सकती है; तो [ यह शंका ] ठीक नहीं-ऐसा मत समझो, क्योंकि यद्यपि छह कोशों ( त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि और मज्जा ) का बना शरीर अनित्य है, तथापि रस और अभ्रक के नामों से अभिहित क्रमशः शिव और पार्वती की सृष्टि से उत्पन्न [ देह तो ] नित्य हो सकती है। विशेष-षट्कोश = त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि और मज्जा-जो शरीर को ढंके रहते हैं । इनमें प्रथम तीन माता से तथा बाद के तीन पिता से प्राप्त होते हैं। ये छहों कोश आत्मा के आवरक ( ढंकनेवाले, छिपानेवाले ) हैं । वेदान्तशास्त्र में भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय-इन पाँच कोशों की मान्यता है । देखियेपञ्चदशी ( ३।१-११)। आयुर्वेद क्त षट्कोशों से बना शरीर भले ही अनित्य हो, परन्तु जब इसमें हर-गौरी की सृष्टि-रस ( पारद ) और अभ्रक-का संयोग हो जायगा तब उसे ( शरीर को) हम नित्य बना देंगे। पारद शिव की सृष्टि है तथा अभ्रक पार्वती की। इस तरह शरीर नित्य हो जाने पर छह कोशोंवाले शरीर का त्याग भी नहीं होगा और उसे दिव्य तथा दृढ़ भी बना दिया जायगा । तब मृत्युभय मिट जायेगा । तथा च रसहृदये५. ये चात्यक्तशरीरा हरगौरीसृष्टिजां तनुं प्राप्ताः। मुक्तास्ते रससिद्धा मन्त्रगणः किंकरो येषाम् ॥ ( १७ ) इति । तस्माज्जीवन्मुक्ति समीहमानेन योगिना प्रथमं दिव्यतनुविधेया । हरगौरीसृष्टिसंयोगजनितत्वं च रसस्य हरजत्वेनाभ्रकस्य गौरीसंभवत्वेन तत्तदात्मकत्वमुक्तम्६. अभ्रकस्तव बीजं तु मम बीजं तु पारदः । अनयोर्मेलनं देवि मृत्युदारिद्रयनाशनम् ॥ इति । उसी प्रकार रसहृदय में [ कहा गया ] 'जो लोग शरीर को बिना त्यागे हुए ही हर-गौरी की सृष्टि (पारद-अभ्रक ) से बना हुआ शरीर पाये हुए हैं, वे रससिद्ध ( रसों को सिद्ध करनेवाले ) लोकमुक्त हैं, मन्त्रों का समूह तो उनका किंकर ( दास ) है।' इसलिए जीवन्मुक्ति को कामना करनेवाले योगी को पहले दिव्य-शरीर कर लेना चाहिए । रस ( पारद ) हर से उत्पन्न है, अभ्रक गौरी से; हर-गौरी-सृष्टि के संयोग से उत्पन्न होना तथा उन देवताओं का रूप होना [ इस श्लोक में ] कहा गया है--[ शिव पार्वती से कहते हैं ]–'अभ्रक तुम्हारा बीज है और मेरा बीज पारद है; हे देवि, इन दोनों का मिलना मृत्यु और दरिद्रता का नाशक है।'
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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