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________________ रसेश्वर-वर्शनम् ३२३ रसस्य पारदत्वं संसारपरप्रापणहेतुत्वेन । तदुक्तम् १. संसारस्य परं पारं दत्तेऽसौ पारवः स्मृतः। इति । रसाणवेऽपि पारदो गदितो यस्मात्परार्थ साधकोत्तमैः। २. सुप्तोऽयं मत्समो देवि ! मम प्रत्यङ्गसम्भवः । मम देवरसो यस्माद्रसस्तेनायमुच्यते ॥ इति ॥ संसार [ के कष्टों ] से [ बचाकर ] मोक्ष दिलाने के कारण ही रस को पारद (पार +द= मोक्ष देनेवाला ) कहते हैं । कहा भी है-'जो संसार ( पुनर्जन्म ) के दूसरे पार ( मोक्ष ) की ओर पहुँचा दे वही पारद कहलाता है।' रसार्णव ( ई० पू० का एक प्राचीन ग्रन्थ ) में भी [ कहा है ]--इसे पारद कहते हैं, क्योंकि उत्तम साधक लोग मोक्ष ( चरम लक्ष्य, पर-प्राप्ति ) के लिए [ इसका प्रयोग करते हैं ] । शिव पार्वती से कहते हैं [ कि] हे देवि, यह ( पारद-रस ) मेरे अन्तरङ्ग (प्रत्यङ्ग) से उत्पन्न है, सुप्तावस्था में रहने पर यह मेरे समान ही है, चूंकि यह मेरे शरीर का रस (द्रव-पदार्थ) है, इसलिए रस कहा जाता है।' विशेष—पारद (पारे ) को रसशास्त्र में रुद्र का वीर्य माना गया है, इसलिए रसार्णव में शिव-पार्वती-सम्वाद के अन्तर्गत पारद को शिव अपना देहरस, प्रत्यङ्गसंभव आदि कह रहे हैं । पारद की उत्पत्ति के लिए देखें-"शिवाङ्गात् प्रच्युतं रेतः पतितं धरणीतले । तद्देहसारजातत्वाच्छुक्लमच्छमभूच्च तत् । अत्र भेदेन विज्ञेयं शिववीर्य चतुर्विधम् । श्वेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं तत्तु भवेत् क्रमात् । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रस्तु खलु जातितः ॥" पारद की सुप्त अवस्था का अर्थ है जब वह मूल रूप में हो, शुद्ध नहीं किया गया हो। ऐसी ही अवस्था में उसकी तुलना शिव से की जाती है। (२. जीवन्मुक्ति की आवश्यकता ) ननु प्रकारान्तरेणापि जीवन्मुक्तियुक्तौ नेयं वाचोथुक्तियुक्तिमतीति चेन्न, षट्स्वपि दर्शनेषु देहपातानन्तरं मुक्तरुक्ततया तत्र विश्वासानुपपत्त्या निविचिकित्सप्रवृत्तेरनुपपत्तेः। तदप्युक्तं तत्रैव-. ३. षड्दर्शनेऽपि मुक्तिस्तु वर्शिता पिण्डपातने। करामलकवत्सापि प्रत्यक्षा नोपलभ्यते । तस्मात्तं रक्षयेत्पिण्ड रसैश्चैव रसायनैः ॥ इति । यदि यह शंका करें कि दूसरे प्रकारों से भी तो जीवन्मुक्ति के उपाय [ बतलाये गये ] हैं, इसलिए यह कथन ( = पारद सेवन से शरीर को स्थिर करके जीवन्मुक्त होना ) ठीक नहीं है-[ तो समाधान यह होगा कि ] ऐसी शंका न करें, क्योंकि छहों दर्शनों में देहपात
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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