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________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४३१ सिद्धि इस प्रकार हो सकती है-'पर्वत सागर आदि पदार्थ कार्य हैं क्योंकि ये अवयवों से युक्त हैं, जैसे घट । इस अनुमान से कार्यत्व की सिद्धि करके पूर्व के अनुमान में कार्यत्व को हेतु रख दिया गया है तथा कार्य होने के कारण ही संसार को सकर्तृक सिद्ध किया गया है।] अब प्रश्न है कि अवयवों से युक्त होना क्या है ? अवयवों के साथ संयोग-सम्बन्ध होना या अवयवों के साथ समवाय ( Inherent ) सम्बन्ध होना ? अवयवों के साथ संयोगी होना ठीक नहीं है क्योंकि गगन आदि में व्यभिचार होगा। [आकाश का संयोग-सम्बन्ध घटादि पदार्थों के अवयवों से रहता है। इसलिए आकाश को भी कार्य मानना पड़ेगा। पर नैयायिक लोग आकाश को कार्य नहीं मानते। अतः यदि अवयवों के साथ संयोग होने के कारण कोई वस्तु कार्य मानी जाय तो आकाश को भी इस लक्षण में समेट लेना पड़ेगा। यही नहीं, अपने अवयवों के साथ संयोगी कार्य मानने पर तो घटादि अवयवयुक्त कहे ही नहीं जा सकते । अवयव और अवयवी में संयोग-सम्बन्ध नहीं, समवायसम्बन्ध है।] दूसरा पक्ष [ कि अवयवों के साथ समवाय सम्बन्ध होने से कार्य की सिद्धि होती है ] भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने से तन्तुत्व ( तन्तु के सामान्य ) में व्यभिचार होगा। [ तन्तुत्व भी तो तन्तुओं में समवेत रहता है पर उसे हम कार्य नहीं मानते । फल यह हुआ कि अवयवों में समवेत रहने से कार्यत्व की सिद्धि नहीं होती । पूर्वपक्षी का यह तर्क नैयायिकों के कार्य-साधन के विरुद्ध दिया गया है। ] तस्मादनुपपन्नमिति चेत्-मैवं वादीः समवेतद्रव्यत्वं सावयवत्वमिति निरुक्तेर्वक्तुं शक्यत्वात् । अवान्तरमहत्त्वेन वा कार्यत्वानुमानस्य सुकरत्वात् । इसलिए [ 'सावयवत्व' हेतु के द्वारा कार्यत्व का अनुमान करना ] असिद्ध है । तो उत्तर में हम यह कहेंगे हि ऐसा मत कहिये । सावयव होने का मतलब है समवेत होना और द्रव्य होना-इस प्रकार निर्वचन ( पदव्याख्या ) करके कहा जा सकता है । [ आकाश के अवयव नहीं होते इसलिए वह किसी से समवेत नहीं हो सकता-उसमें व्यभिचार नहीं होगा। तन्तुत्व द्रव्य नहीं है इसलिए उसमें भी व्यभिचार नहीं होगा। अतः सावयव की इस व्याख्या से प्रश्न बिल्कुल सहज हो जाता है और इसके द्वारा हम कार्यत्व की सिद्धि करके संसार को कार्य मानते हुए ईश्वर की सिद्धि कर सकते हैं । ] ___ इसके अतिरिक्त निम्न कोटि के महत्त्व ( आकार Magnitude ) के द्वारा भी [ संसार को ] कार्य सिद्ध करने के लिए अनुमान करना सरल है । [ महत्त्व या आकार दो प्रकार के हैं परम महत्त्व अर्थात् सबसे अधिक आकार तथा अवान्तर महत्त्व जो परम महत्त्व के नीचे के पदार्थों का बोधक है । अवान्तर महत्त्व के अन्तर्गत द्वयणुक से लेकर
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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