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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रकार एक कारण का दूसरे कारण को उत्पन्न करते जाना )। यहाँ बाह्य समुदायों ( कारणों के समूहों ) के होने पर, बीजादि कारण या अंकुरादि कार्य यह नहीं समझते कि मैं अंकुर बना रहा हूँ या मैं बीज से बना हूँ। इसी तरह आध्यात्मिक पदार्थों में भी दो कारणों ( प्रत्यय, हेतु ) को समझ लें। यहाँ पर उस लोकोक्ति के अनुसार छोड़ देते हैं कि-'जानने योग्य वस्तुओं का समुद्र ही सामने में है, ग्रन्थ के बड़ा हो जाने के भय से [ विस्तार को छोड़कर केवल दिशामात्र दिखला दें]।'
विशेष-आध्यात्मिक वस्तुओं का प्रत्ययोपनिबन्धन जैसे—कार्य की उत्पत्ति पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और विज्ञान, इन छह धातुओं के समवाय से होती है । पृथिवीधातु से काय में कठोरता, जल-धातु से स्निग्धता, अग्निधातु से वर्ण और परिपाक, वायुधातु से श्वासादि, आकाशधातु से विस्तार तथा विज्ञान-धातु से नाम-रूप प्राप्त होता है।
आध्यात्मिक वस्तुओं का हेतूपनिबन्धन कारण ही भवचक्र कहलाता है। इसे ही विशेषतया प्रतीत्यसमुत्पाद समझते हैं। इसमें १२ कारणों की श्रृंखला प्रदर्शित की गई है । बौद्ध लोग इन्हें ही दुःख का कारण समझते हैं-क्षणिक वस्तुओं को स्थिर समझना या तत्त्वों को न जानना अविद्या है। इसी के कारण पूर्वजन्म में भला-बुरा कर्म करने का संस्कार होता है। ये दोनों कारण पूर्व-जन्म से सम्बद्ध हैं । संस्कार के कारण ही इस जन्म में प्राणी गर्भ में आता है तथा विज्ञान या चैतन्य पाता है। इसके फलस्वरूप शारीरिक और मानसिक अवस्थाए' ( नाम-रूप ) उसे मिलती हैं। नाम-रूप के कारण ही षडायतन (इन्द्रियों का समूह ) मिलता है जिसके कारण बालक बाह्य पदार्थों का स्पर्श करता है। स्पर्श करने पर उसे सुख, दुःख तथा उदासीनता की त्रिविध वेदना ( Sensation ) होती है जिससे पदार्थों की तृष्णा उत्पन्न हो जाती है। तृष्णा से विषयों की आसक्ति या उपादान होता है और उसी से भव अर्थात् नया जन्म होता है जो पूर्वजन्म के संस्कार के समान ही है। यहां तक आठ कारण वर्तमान जीवन से सम्बद्ध हैं । अब भव के कारण भविष्य में जाति ( जन्म ) लेना अनिवार्य है। फिर जरामरण को कौन रोकेगा ? यही दुःख के कारणों की शृंखला है जिस पर समूचा बौद्ध-दर्शन अवलम्बित है।
(२९. सौत्रान्तिक-मत का उपसंहार ) तदुभयनिरोधः। तदनन्तरं विमलज्ञानोदयो वा मुक्तिः। तन्निरोधोपायो मार्गः । स च तत्त्वज्ञानम् । तच्च प्राचीनभावनाबलावतीति परमं रहस्यम् । सूत्रस्यान्तं पृच्छतां कथितं--'भवन्तश्च सूत्रस्यान्तं पृष्टवन्तः, १-पुरःस्थिते प्रमेयाब्धौ ग्रन्थविस्तरभीरुभिः ।
विस्तारं सम्परित्यज्य दिङ्मात्रमुपदर्यताम् ।