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________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २४१ मिट्टी का पिण्ड तो घट बनाने के समय रूंध दिया जाता है पर मिट्टी ज्यों-की-त्यों रहतो है । नष्ट होने पर मिट्टी का पिण्ड कारण कैसे होगा ? न च 'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' ( छा० ६।१।५) इत्येतत्कार्यस्य मिथ्यात्वमाचष्ट इत्येष्टव्यम् । वाचारम्भणं विकारो यस्य तदविकृतं नित्यं नामधेयं मृत्तिकेत्यादिकमित्येतद्वचनं सत्यमित्यर्थस्य स्वीकारात् । अपरथा नामधेयमितिशब्दयोर्वेयर्थ्य प्रसज्येत । अतो न कुत्रापि जगतो मिथ्यात्वसिद्धिः । ऐसा नहीं समझें कि निम्नलिखित वाक्य में कार्य ( संसार ) का मिथ्यारूप होना कहा गया है-( घटादि ) विकार केवल शब्दों में अवस्थित ( शाब्दिक ) नाममात्र है, वास्तव में तो [ उन विकारों में कारण के रूप में विद्यमान ] मृत्तिका ही सत्य है' ( छा० ६११५ )। [ शंका करनेवालों का यह कथन है कि 'वाचारम्भणम्०' वाला वाक्य 'यथा सोम्यकेन०' वाले वाक्य का पूरक है, उसका दृष्टान्त है। घट, मुराही, निकोरा, कटोरा आदि बर्तनों का कारण एकमात्र मिट्टी है, जिसे जान लेने पर सब बर्तनों का ( मिट्टी मे बने हुए बर्तनों का ) ज्ञान हो जाता है । कारण का ज्ञान होने पर कार्य का ज्ञान हो ही जायगा क्योंकि कार्य-कारण परस्पर सम्बद्ध होते हैं । अतः कारणरूप मिट्टी सत्य है, उसके विकार मिथ्या । इस पर पूर्णप्रज-दार्शनिक कहते हैं कि ऐमी बात नहीं है --इमका कारण आगे देखें। कारण यह है कि इसका अर्थ हम दूसरे रूप में स्वीकार करते हैं। वागिन्द्रिय से उच्चारण करना विकार ( उत्पादन ) है [ अभिव्यंजन नहीं ] । यह विकार जिम पदार्थ का होता है वह ( पदार्थ ) अविकृत (संस्कृत ) है, नित्य है, नाम है जैसे मृत्तिका इत्यादि, यह वाक्य बिल्कुल सत्य है। यदि ऐसा अर्थ नहीं रखें नो 'नामधेय' और 'इति' दोनों शब्द व्यर्थ हो जायेंगे । इसलिए कहीं भी ( किसी श्रुतिवाक्य मे ) मंमार को मिथ्यारूप सिद्ध नहीं कर सकते । [ शब्द के दो स्वरूप हैं-असंस्कृत ( अनिन्य ) और (नित्य ) । अनित्य शब्दों का वागिन्द्रिय मे केवल उत्पादन होता है, ये उपनि-विनाया होने के कारण ही अनित्य ( Non-eternal ) कहलाते हैं । 'मृत्तिका' आदि नित्य गब्दों का उत्पादन नहीं होता, उनकी अभिव्यक्ति ( Manifestation ) होती है क्योंकि उन्पत्तिविनाश इनका होता ही नहीं । इस आकार में रहनेवाला शब्दस्वरूप पदार्थ का वास्तविक नाम है । यही अविकृत और नित्य भी है। नामधेय संस्कृत (नित्य ) और अगंस्कृत ( अनित्य ) दोनों शब्दों से पड़ता है परन्तु योग्य नामधेय नित्य शब्द का ही है । 'विश्वविद्यालय में सत्यदेवजी ही अव्यापक हैं, दूसरे लोग छायामात्र हैं' इस वाक्य में अध्यापक' का अर्थ योग्य अध्यापक है । यद्यपि सभी अध्यापक ही हैं परन्न अयोग्यता के कारण उन्न ऐसा नहीं कहते । इसलिए उद्दालक श्वेतकेतु को कह रहे हैं कि वागिन्द्रिय मे उच्चारण १६ स० सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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