________________
२४२
सर्वदर्शनसंग्रहेकरना ( वाचारम्भण ) विकार (= विकृति, अनित्य ) है, नामधेय तो मृत्तिका आदि शब्द (नित्य शब्द-स्वरूप ) ही है, यह वाक्य जो मैंने कहा यही ठीक है, झूठा नहीं । यदि शंका करनेवालों के अनुसार-वाचारम्भणं विकारः, मृत्तिका सत्यम्-विकार केवल शाब्दिक या मिथ्या है, सत्य तो मृत्तिका ही है)-ऐसा अर्थ करें तो उक्त वाक्य में 'इति' और 'नामधेयम्' शब्द व्यर्थ हो जायंगे । अद्वैतवेदान्तियों के द्वारा दिया गया अर्थ यहाँ देख ही चुके । हम अर्थ करते हैं—'मृत्तिका इत्येव नामधेयम्', यहाँ नामधेय शब्द विधेय हो जाता है । अद्वैत-पक्ष में इसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रहती । 'इति' का हमारे यहाँ यह उपयोग है कि 'मृत्तिका' को इसी के द्वारा शब्द के रूप में लेते हैं। मृत्तिकेति = 'मृत्तिका' इति शब्दः ।]
विशेष—इस प्रकार 'वाचारम्भणं विकार:' को पूर्ववाक्य का पूरक न मानकर स्वतन्त्र दृष्टान्त मान लेते हैं । अविकृत और नित्य होने के कारण 'मृत्तिका' शब्द संस्कृत (प्रधान) नाम है । असंस्कृत नामों के जानने का जो फल है वह संस्कृत नाम को जानने से ही प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार संसार को जानने का फल परमात्मा के ज्ञान से प्राप्य है। किसी रूप में संसार मिथ्या नहीं, वह सत्य ( Real ) ही है ।
(१३. मिथ्या का खण्डन ) किं च प्रपञ्चो मिथ्येत्यत्र मिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा । प्रथमे सत्याद्वैतभङ्गप्रसङ्गः । चरमे प्रपञ्चसत्यत्वापातः । नन्वनित्यत्वं नित्यमनित्यं वा । उभयथाप्यनुपपत्तिरित्याक्षेपवदयमपि नित्यसमजातिभेदः स्यात् ।
तदुक्तं न्यायनिर्माणवेधसा-'नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेनित्यसमः' ( न्या० सू० ५॥१॥३५ ) इति । ताकिकरक्षायां च
४३. धर्मस्य तदतद्रूपविकल्पानुपपत्तितः।
मिणस्तद्विशिष्टत्वभङ्गो नित्यसमो भवेत् ॥ इति । अस्याः संज्ञाया उपलक्षणत्वमभिप्रेत्याभिहितं प्रबोधसिद्धावन्वयित्वात्तूपरञ्जकधर्मसमेति । तस्मादसदुत्तरमिति चेत् ।
१. 'इति', शब्द की उपयोगिता केवल उद्धरण देने में ही नहीं है, प्रत्युत पदार्थों का विपर्यय भी यह करता है । जब किसी शब्द से शब्द का ही अर्थ निकलता है तब उसमें इति लगा देने पर अर्थपरक अर्थ हो जाता है । 'अग्नेर्डक्' ( पा० सू० ४।२।३३ ) कहने पर 'अग्नि' शब्द ( अर्थ नहीं ) से ढक् प्रत्यय विहित है। उसी प्रकार 'न वेति विभाषा' ( १।१।४४ ) कहने पर भी 'न' और 'वा' शब्दों की प्राप्ति होती है जब कि इति के प्रयोग के कारण यहाँ न = निषेध और वा = विकल्प अर्थ लेते हैं, शब्द से काम नहीं चलता । 'गवित्ययमाह' में अर्थ की प्राप्ति को इति शब्द ही रोकता है और शब्द की प्राप्ति कराता है।