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________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २४३ इसके अतिरिक्त हम यह पूछे कि 'प्रपंच ( संसार ) मिथ्या है' इस वाक्य में 'मिथ्या होना' वास्तव में तथ्य ( Fact ) है या नहीं ( = झूठा है ) ? यदि प्रपञ्च का मिथ्या होना सत्य मानते हैं तो सत्य अद्वैत का खण्डन होता है। [ वास्तव में सत्य एक होता है । अद्वैतवादी केवल ब्रह्म या अद्वैततत्व को ही सत्य स्वीकार करते हैं । यदि प्रपंच का मिथ्या होना भी सच मान लें तो पहले सत्य का भंग हो जाता है। एक साथ ही दो-दो सत्यों को मानने का प्रसङ्ग आ पड़ेगा। ] दूसरी ओर यदि प्रपंच का मिथ्या होना झूठ समझ लें तब पंच को सत्य ही मानना पड़ेगा [ जिससे मायवाद का आधार ही नष्ट हो जायगा । कुछ लोग ऐसा तर्क कर सकते हैं कि हमारे द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त द्विविधा ( Dilemma ) ठीक निम्नांकित द्विविधा की तरह ही 'नित्यसम' नामक जाति ( न्यायशास्त्र का एक दोष) का उदाहरण हो जायगा-अनित्य होना क्या नित्य है या अनित्य ? दोनों ही विकल्पों की असिद्धि होती हैं ( ऐसा तर्क दोषपूर्ण हो जाता है । ) [ कहने का अभिप्राय यह है कि अनित्यत्व को यदि नित्य या अनित्य के रूप में लेकर तर्क द्वारा दोनों पक्षों का खड़ा कर दिया जाय तो यह उचित ढंग नहीं है, न्यायशास्त्र में कही गयी जाति नामक दोषों को कोटि में यह आ जायगा। दूसरों के द्वारा किये गये प्रश्न का असमीचीन ( गलत) बाद देना 'जाति है। उत्तर इसलिए गलत माना जाता है कि दोष उसमें नहीं दिखला सकते। गोतम ने न्यायसूत्र के पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में इस जाति के २४ भेद बतलाये हैं। उनमें एक भेद 'नित्यसम' भी है । यहाँ यही जाति लगती है। यदि 'प्रपंच का मिथ्या होना' उसी प्रकार तथ्य या अतथ्य मानकर खण्डित कर दें तो नित्यसम जाति हो जायगी । अब नित्यसम जाति के विषय में कुछ विचार कर लें।] . न्यायशास्त्र के निर्माण में ब्रह्मा बाबा की तरह पूज्य [ गौतम ] कहते हैं-अनित्य होने के कारण [ अनित्यत्व ] नित्य है, क्योंकि अनित्य में नित्यत्व की सिद्धि होती है, इस प्रकार का तर्क करना नित्यसम कहलाता है ( गौतमीय-न्यायसूत्र, ५।१३५.)। [ अभिप्राय यह है कि स्वयं अनित्यत्व ( Non-eternity ) को स्थायी मान लेते हैं, वह इस आधार पर कि अनित्यत्व भले ही अस्थायी हो, परन्तु अनित्यत्व के अभाव की अवस्था में शब्द अनित्य नहीं माना जा सकता। ] इसे वरदाचार्य ( १०५० ई० ) ने अपने तार्किकरक्षा नाम के ग्रन्थ में पल्लवित किया है-'जब धर्म का ( जो शब्दगत है तथा अनित्यत्व के रूप में है ) तद्रूप होना (= अनित्य होना ) या अतद्रूप होना ( नित्य होना ), ये दोनों विकल्प असिद्ध हो जाते हैं, तब धर्मी ( शब्द ) का उन विकल्पों के द्वारा विभूषित होने की दशाओं का खण्डन होता है, इसे हो नित्यसम कहते हैं।' [ अनित्यत्व अनित्य है या , नित्य इन दोनों में कोई भी सिद्ध नहीं होता। उलटे इनसे विरुद्ध वाक्य की सिद्धि हो जाती है । इसी संज्ञा (= नित्यसम ) को आदर्श मानकर प्रबोधसिद्धि नाम के ग्रन्थ में कहा है कि अर्थ के अनुसार [ प्रस्तुत प्रसंग में नित्यसम के समान ही ] उपरंजकसम नाम की
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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