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सर्वदर्शनसंग्रहे
जाति मानं । अतः पूर्वपक्षी लोगों का यह कहना है कि मिथ्या के खण्डन के लिए आपका - तर्क असंगत है। विशेष-मिथ्या का खण्डन करने के लिए पूर्णप्रज यही तर्क देते हैं
'प्रपञ्च मिथ्या है' (प्रपञ्चो मिथ्या) इस वाक्य में मिथ्यात्व तथ्य है या अतथ्य । उपर्युक्य विवेचन में दोनों विकल्पों की निस्सारता देखी जा चुकी है। अब मिथ्या को माननेवाले लोग कहते हैं कि इस तर्क से मिथ्या का खण्डन करने पर न्यायशास्त्र के अनुसार नित्यसम नामक जाति (-दोष ) होगा। नित्यसम में ठीक ऐसा ही होता है—'अनित्यः शब्दः' इस वाक्य में पूछे कि यह अनित्यत्व स्वयं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो धर्म ( अनित्यः ) के नित्य रहने पर धर्मी ( शब्द ) को भी नित्य ही मानना पड़ेगा, क्यों न हो, धर्मी और धर्म तो एक ही तरह के रहेंगे न ? और प्रतिज्ञा के ठीक विपरीत 'नित्यः शब्दः' सिद्ध हो गया। दूसरी ओर अनित्यत्व यदि सदा नहीं रहता ( अनित्य होता ) तो अनित्याभाव अर्थात् नित्य शब्द की ही सिद्धि होगी ( अनित्य की अनित्यता = नित्यता ) किसी भी दशा में ऐसा तर्क करना नित्यसम है, यह दोष है। नित्य तक पहुँचना नित्यसम है।
प्रबोधसिद्धि में नित्यसम की तौल का ही एक शब्द उपरंजकसम दिया गया है, जिसका अर्थ है ऐसा उत्तर देना, जिसमें धर्म की उपरंजकता का प्रतिपादन हो । उपरंजक उसे कहते हैं, जो विकल्पों का विचार उठने के पूर्व तक ही अच्छा लगे । 'प्रपञ्चो मिथ्या' या 'अनित्यः शब्दः' आदि वाक्यों में धर्म ( मिथ्या अनित्य ) तभी तक लुभा सकता है, जब तक विकल्प नहीं आते । विकल्पों के आते ही ठीक उलटे अमिथ्या या नित्य की सिद्धि हो जाती है । इस प्रकार पूर्वपक्षी पूर्णप्रज के मिथ्याखण्डक नर्क को असत् कहते हैं । अब पूर्णप्रज्ञ इसका उत्तर देंगे।
अशिक्षितत्रासनमेतत् । दुष्टत्वमलानिरूपणात् । तद् द्विविधं साधारणमसाधारणं च । तत्राद्यं स्वव्याघातकम् । द्वितीयं त्रिविधं युक्ताङ्गहीनत्वमयुक्ताङ्गाधिकत्वमविषयवृत्तित्त्वं चेति ।
तत्र साधारणमसम्भावितमेव । उक्तस्याक्षेपस्य स्वात्मव्यापनानुलम्भात् । एवमसाधारणमपि । घटस्य नास्तितायां नास्तितोक्तौ अस्तित्ववत्प्रकृतेऽप्युपपत्तेः।
[ पूर्णवन उत्तर देते हैं कि इस प्रकार जाति ( गलत उत्तर ) का आक्षेप लगाने से ] मूर्ख लोग ही डर सकेंगे (हमारा इससे कुछ होना नहीं है )। आपने दोष के मूल का तो प्रतिपादन किया ही नहीं। [ दोष के बीज का निरूपण बिना किये हुए किसी उत्तर को गलन ( जाति ) नहीं कह सकते ] । अब, दोष का मूल दो प्रकार का हो सकता हैसाधारण ( General ) और असाधारण ( Particular )। इनमें जो पहला ( साधारण