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________________ पूर्ण प्रज्ञ-दर्शनम् २४५ दोषमूल ) है वह अपने आपका ही विनाशक है [ क्योंकि जिसके लिए इसका प्रयोग होता है, उसको व्याप्त करने के साथ-साथ अपने को भी व्याप्त कर लेता । इसलिए यह उत्तर आत्मघातक होने से ठीक नहीं । यदि कोई विरोधी अपने अभिमत की सिद्धि के लिए कुछ तर्क उपस्थित करता है, तो उसके तर्क की अप्रामाणिकता तर्क से ही सिद्ध की जा सकती है । अब यह अप्रमाणिकता केवल विरोधी के तर्क को ही नहीं व्याप्त करती, प्रत्युत उस तर्क की अप्रामाणिकता सिद्ध करनेवाले अपने तर्क को भी समेट लेती है । ] दूसरा भेद ( असाधारण ) तीन प्रकार का है - आवश्यक ( युक्त ) अंग से रहित हो सकता है या कोई अनावश्यक अंग उसमें अधिक हो सकता है या अविषय ( असंगत स्थान ) में उसकी वृत्ति ( चाल, गति ) हो सकती है। [ इस प्रकार असाधारण दोषमूल भी ठीक नहीं जंचता । ] प्रस्तुत प्रसंग में 'साधारण' दोष की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि यहाँ दिये गये आक्षेप में अपने-आपको व्याप्त करने की शक्ति नहीं 1 [ साधारण वही है, जो पर की तरह अपने को भी व्याप्त करे । प्रस्तुत स्थल में 'प्रपंचगत मिथ्या तथ्य है या अतथ्य' --- इसमें प्रपंचगत मिथ्या को ही दूषित कर सकते हैं, प्रपंच की सत्यता ( जिसे दूषित करना अभीष्ट है ) का इससे कुछ नहीं बिगड़ता । अत: अपने अभीष्ट दूषणीय पदार्थ --प्रपंच की सहायताको व्याप्त न कर सकने से 'साधारण' - दोष की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रपंच की सत्यता पर लगाये गये आरोप व्यर्थ हैं । ] 'असाधारण' दोष की भी प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि यदि वास्तव में [ उदाहरणार्थं ] घट नहीं रहे और हम कहें कि घट नहीं है तो यह निषेध - कल्पना घट पर उसी प्रकार आरोपित होती है जिस प्रकार अस्तित्व की कल्पना । ठीक इसी प्रकार यहाँ भी सिद्धि होगी । [ असाधारण दोष अपने अभीष्टार्थ को दूषित नहीं करता, फिर भी दूसरों की बातों को भी दूषित नहीं करता, क्योंकि कहीं तो उसमें आवश्यक अंग नहीं रहता जैसे—कोई प्रतिपक्षी पहाड़ में अग्नि का अभाव सिद्ध कर चुका हो और हम अग्नि की सत्ता सिद्ध करते हुए कहें कि पहाड़ में अग्नि है, जैसे रसोईघर में; यहाँ एक आवश्यक अंग हेतु'धूमवान् होने के कारण' - छूट गया, जिससे यह उत्तर न तो अपने अभीष्ट अग्नि की सिद्धि ही कर सकता है और न प्रतिपक्षी के अभीष्ट 'अग्नि के अभाव' को ही दोषपूर्ण दिखा सकता - यह युक्तांगरहित असाधारण दोष है । कहीं कहीं उसमें अनावश्यक अंग जुड़ा रहता है, जैसे-- उपर्युक्त स्थल के उत्तर में यह कहें कि पहाड़ में अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है तथा प्रकाश भी है, वह पार्थिव भी है, जैसा कि रसोईघर । 'यहाँ काश भी है' यह अनावश्यक अंग अधिक है, किन्तु यह अपने अभीष्ट अग्नि की सिद्धि भी नहीं करना और पराभिमत 'अग्नि के अभाव' को दूषित भी नहीं करता । हाँ, यह अधिकांग अपने उत्तर में वक्ता का अविश्वास प्रकट करता है - इसमें योग्यता नहीं । कहीं-कहीं उसमें अविषय में वृत्ति होती है ( अपने विषय से सम्बन्ध नहीं रहता ) । उदाहरणार्थ, यदि उत्तर में यह कहें कि पहाड़ पार्थिव है, क्योंकि घट की तरह गन्धयुक्त है, तो यह उत्तर अपने
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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