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________________ २४६ सर्वदर्शनसंग्रहेअभीष्ट ( अभ्युपगत ) अग्नि से सम्बद्ध नहीं है और दूसरे के अभीष्ट 'अग्नि के अभाव' से ही असम्बद्ध है। अतः न यह अग्नि की सिद्धि करता और न अग्नि के अभाव को ही दूषित कर पाता है। प्रस्तुत प्रसंग में 'मिथ्या तथ्य है या अतथ्य' यह उत्तर न तो आवश्यक अंग से रहित है, न अनावश्यक अंग से युक्त और न प्रपंच की सत्यता विषय से ही असम्बद्ध । तब फिर असाधारण दोष क्यों होगा? विकल्प की उद्भावना करने से प्रपंच के मिथ्यात्व को दूषित कर देने पर प्रपंच की सत्यता की सिद्धि हो जायगी।] ननु प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वमभ्युपेयते नासत्त्वमिति चेत्, तदेतत्सोऽयं शिरश्छेदेऽपि शतं न ददाति, विशतिपञ्चकं तु प्रयच्छतीति शाकटिकवृत्तान्तमनुहरेत् । मिथ्यात्वासत्त्वयोः पर्यायत्वादित्यलमतिप्रपञ्चेन । ____ अब यदि वे लोग कहें कि हम प्रपंच का मिथ्या होना सिद्ध करते हैं, असत् होना नहीं तो यह ठीक वैसा ही हुआ जैसा कोई गाड़ीवान सिर काटे जाने पर भी सौ रुपये नहीं देता, किन्तु पाँच बीस ( बीस x पाँच = १०० ) देने के लिए तुरत तैयार हो जाता है। मिथ्या और असत् दोनों का अर्थ एक ही तो है-अब अधिक बढ़ाकर क्या कहें ? विशेष-शंकराचार्य के अनुसार मिथ्या और असत् में अन्तर है-जगत् मिथ्या है, किन्तु असत् नहीं, क्योंकि व्यावहारिक दशा में तो उसकी सत्ता है। असत् वह है, जो किसी भी दशा में न रहे, जैसे वन्व्यापुत्र, शशशृंग आदि । पारमार्थिक दशा में जिसकी सत्ता न हो वह मिथ्या है, परन्तु मध्व दोनों को एक मानकर व्यंग्य करते हैं कि मूर्ख गाड़ीवान सौ रुपये देता नहीं, ५४ २० देने को तैयार हो जाता है-उसे १०० और पांच-बीस में बड़ा अन्तर मालूम पड़ता है। मिथ्या और असत् को एक मानने पर फल यह होता है कि मिथ्यात्व को दूषित करके सता की सिद्धि हो जाती है। अत: यह उत्तर 'जाति ( Fallacious ) नहीं है, वस्तुतः 'मिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा' आदि तर्क के द्वारा मिथ्या का खण्डन सम्भव है, ( प्रपंच ) संसार की सत्यता इसी से सिद्ध हो जायगी। (१४. ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र का अर्थ ) तत्र 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' (ब० सू० १।१।१) इति प्रथमसूत्रस्यायमर्थः--तत्राथशब्दो मङ्गलार्थोऽधिकारानन्तर्यार्थश्च स्वीक्रियते । अतःशब्दो हेत्वर्थः । तदुक्तं गारुडे ४४. अथातःशब्दपूर्वाणि सूत्राणि निखिलान्यपि । प्रारभ्यन्ते नियत्येव तत्किमत्र नियामकम् ।। ४५. कश्चार्थस्तु तयोविद्वन्कथमुत्तमता तयोः । एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्यथा ज्ञास्यामि तत्वतः॥ अब ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ब्रह्मसूत्र के इस प्रथम सूत्र का यह अर्थ है-इसमें 'अथ' ( इसके बाद ) शब्द मंगल का द्योतक ( व्यंजक ) है और [ ब्रह्म-ज्ञान के ] अधिकार की
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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