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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् प्राप्ति के बाद का वाचक है। [ अथ शब्द का अर्थ मंगल नहीं है, वह केवल इससे व्यक्त होता है। वास्तव में उसका वाच्यार्थ है-आनन्तर्य अर्थात् इसके बाद। पर प्रश्न उठता है. किसके बाद ? ब्रह्म-ज्ञान का अधिकार मिलने के बाद ही ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए । ] 'अतः' ( इसलिए शब्द का अर्थ है प्रयोजन । जैसा कि गरुड़ पुराण में कहा गया है-'सभी सूत्र-ग्रन्थ नियम ( नियति ) से 'अथ' और 'अतः' शब्दों के द्वारा आरम्भ होते हैं, इसका क्या कारण है ?' [ नारद ब्रह्मा से पूछते हैं ] 'हे विद्वन् ! इन दोनों का क्या अर्थ है, इन दोनों की उत्तमता ( श्रेष्ठता ) का क्या कारण है ? हे ब्रह्मन् ! आप यह बतलावें जिससे मैं इनका रहस्य जान जाऊँ ।'
४६. एवमुक्तो नारदेन ब्रह्मा प्रोवाच सत्तमः।
आनन्तर्याधिकारे च मङ्गलार्थे तथैव च ॥
अथशब्दस्त्वतःशब्दो हेत्वर्थे समुदीरितः। इति । यतो नारायणप्रसादमन्तरेण न मोक्षो लभ्यते प्रसादन ज्ञानमन्तरेण, अतो ब्रह्माजिज्ञासा कर्तव्येति सिद्धम्। - नारद के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर सज्जनों में श्रेष्ठ ब्रह्मा बोले-"आनन्तर्य, अधिकार और मंगल के अर्थ में 'अथ' शब्द होता है और 'अतः' शब्द हेतु के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।" चूंकि नारायण के प्रसाद के बिना मोक्ष नहीं मिलता और ज्ञान के बिना यह प्रसाद नहीं मिलता, इसलिए ब्रह्म को जानने की इच्छा करनी चाहिए, यह सिद्ध हो गया।
विशेष-किसी शास्त्र में चार अनुबन्ध होते हैं-विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्बन्ध । वेदान्तशास्त्र का विषय ब्रह्म है । ब्रह्म जीव से पृथक् और सभी गुणों से पूर्ण है, श्रुतिवाक्य 'तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म' ( ते० ३।११ के ) द्वारा उसका प्रतिपादन होता है। उसके अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं है । सूत्र में भी जिज्ञासा का विषय ब्रह्म को ही बनाकर 'ब्रह्मजिज्ञासा' पद का प्रयोग किया गया है इस शास्त्र का प्रयोजन है । मोक्ष की प्राप्ति, क्योंकि 'तमेवं विद्वानभृत इह भवति' (नृ० पू० ११६) । इस श्रुति में ब्रह्मज्ञान से मोक्षलाभ का वर्णन किया गया है । ब्रह्मज्ञान हो जाने पर ज्ञानियों को ब्रह्म के प्रसाद से मोक्ष मिलता है। कहा भी है- 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः ( का०. २।२३ )। जिस भक्त पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे अपनाते हैं, उसी भक्त को परमात्मा मिल सकते हैं। प्रेम बढ़ाने से ही कृपा होती है, परमात्मा प्रसन्न होते हैं । ब्रह्मज्ञान होने पर प्रेम बढ़ ही जायगा । गीता (७।१७ ) में कहा है-'प्रियो हि ज्ञानिनोत्यर्थमहं स च मम प्रियः' । वेदान्त का यह प्रयोजन 'अतः' शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है। विषय और प्रयोजन की सत्ता होने पर अधिकारी की सम्भावना कठिन नहीं । इसके बाद अधिकारी और शास्त्र का सम्बन्ध निश्चित ही होगा। इस प्रकार चारों अनुबन्धों के सिद्ध होने पर शास्त्र का आरम्भ करना बिल्कुल संगत है।