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________________ २४० सर्वदर्शनसंग्रहे फल मिल जाता है। दूसरी स्त्रियों को देखने पर अपने-आप पहला ज्ञान चला आता है। किन्तु इस सादृश्य के आधार पर जीव और ईश्वर के बीच सादृश्य स्थापित नहीं कर सकते। कुछ बातों में ऐसा हो सकता है, पर सभी पहलुओं से नहीं । ब्रह्म और जीव में चैतन्य, सत्यता, ज्ञान आदि की तुलना हो सकती है, परन्तु स्वतन्त्रता आदि कतिपय गुणों का सादृश्य नहीं है, क्योंकि श्रुति प्रमाण से इसका विरोध होता है। अतः परमात्मा को सत्य-रूप में जानकर जगन को भी सत्य-रूप में जान लेंगे-यह सिद्ध है। तदेव सादृश्यमत्रापि विवक्षितं 'यथा सोम्यकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात्' (छा० ६।११४ ) इत्यादिना । अन्यथा 'सोम्यकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातम्' इत्यत्र एक-पिण्डशब्दो वृथा प्रसज्येयाताम् । 'मृदा विज्ञातया' इत्येतावतैव वाक्यस्य पूर्णत्वात् । उपर्युक्त तीन प्रकार के सम्बन्धों में सादृश्य-सम्बन्ध ही इस निम्नलिखित उदाहरण में कहना अभीष्ट है-'हे सौभ्य (प्रसन्नमुख शिष्य ), जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जानने से मिट्टी जाति का ही बोध हो जाता है' ( छा० ६।१।४) इत्यादि । यदि ऐसा नहीं होता (=सादृश्य इसका कारण नहीं होता, बल्कि उपादानोपादेय-भाव कारण होता ) तब 'सौम्य, मिट्टी के एक पिण्ड से सभी मृण्मय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है' इस वाक्य में 'एक' और 'पिण्ड' शब्द व्यर्थ ही हो जाते, केवल इतना कहने से ही वाक्य पूर्ण हो जाता-'मिट्टी को जानने से......' इत्यादि । विशेष-जब सादृश्य के कारण एक के जानने से सब का ज्ञान होना मानेगे, तभी मिट्टी के किसी एक पिण्ड की अभिव्यक्ति दिखलाकर 'दूसरी अभिव्यक्तियाँ भी ऐसी. ही होती हैं' ऐसा ज्ञान दूसरों के विषय में हो जायगा। इस प्रकार एक शब्द का अपना महत्त्व होगा । सादृश्य के लिए भी भेद की तरह ही दो पदार्थ होते हैं—एक धर्मी, दूसरा प्रतियोगी। मिट्टी के बने घट आदि को धर्मी बनाकर मिट्टी का पिण्ड स्वयं प्रतियोगी हो जाता है । मिट्टी का बना हुआ पिण्ड भी है, घट भी। पिण्ड के सादृश्य से ही मिट्टी के दूसरे विकार घट का ज्ञान होता है। अतः पिण्ड शब्द भी सार्थक है। दूसरी ओर, यदि उपादानोपादेय-सम्बन्ध से उक्त वाक्य की प्रामाणिकता मानें तो एक और पिण्ड शब्दों की आवश्यकता नहीं रहेगी। इनके बिना भी वाक्य का पूरा-पूरा अर्थ निकलता । 'मृदा विज्ञातया सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात्'-केवल इतना ही कहते । कहीं की थोड़ी मिट्टी का ज्ञान उपादान ( Material cause ) होता और सारी मिट्टियों का ज्ञान उपादेय ( effect ) होता है । परन्तु 'एक' और 'पिण्ड' शब्दों का प्रयोग निरर्थक नहीं, अतः सादृश्य सम्बन्ध ही विवक्षित है । इसके अलावे, एक और पिण्ड शब्दों में विरोध भी हो जायगा । एक ही मृत्पिण्ड सभी मृण्मय पदार्थों ( Earthen objects ) का उपादान कारण नहीं हो सकता । मिट्टी मृण्मय घट आदि का उपादान है, मिट्टी का पिण्ड नहीं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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