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बौद्ध-दर्शनम् ( Idea ) के प्रतिनिधिमात्र हैं । मानसिक धारणाओं से ही मन बाह्य-पदार्थों का अनुमान कर लेता है। केवल वर्तमानकाल की सत्ता ये लोग मानते हैं। वैभाषिक लोग सभी कालों को सत्ता मानने के कारण 'सर्वास्तिवादी' कहलाते हैं। विज्ञानवादियों के खण्डन में ये उसी प्रकार दत्तचित्त हैं जिस प्रकार बर्कले ( Berkeley ) के खण्डन में मूर (Moore)। मूर का सिद्धान्त वस्तुवादी ( Realistic ) है । जब कि बर्कले आत्मनिष्ठ विचारवादी ( Sudjective Idealist ) हैं। सौत्रान्तिक मत बहत कुछ लौक ( Locke ) की 'विचारों की अनुकृति' ( Copy theory of ideas ) से मिलता है ।
(४) वैभाषिक ( Direct Realism )-बाहरी वस्तुओं को अनुमेय न मानकर वे पूर्णतया प्रत्यक्षगम्य मानते हैं क्योंकि जब तक उनका प्रत्यक्ष न हो, उनकी सत्ता किसी दूसरे साधन से सिद्ध नहीं हो सकती। पहले से अग्नि का प्रत्यक्ष जिस व्यक्ति ने नहीं किया है, कभी भी धूम के आधार पर उसका अनुमान नहीं कर सकता। बाह्य पदार्थों से सम्पर्क नहीं रहने पर मनोजगत् में कभी भी बाहरी चीज की धारणा नहीं बन सकती। इसलिए या तो विज्ञानवाद मानें या बाह्य वस्तुओं का साक्षात्प्रत्यक्ष मानें । अभिधर्मदर्शन से ही वैभाषिक-सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ है।
माध्यमिक = पूर्ण असत् या पूर्ण सत् को अस्वीकार कर दोनों की सोपाधिक सत्ता माननेवाला मध्यम-मार्ग का अवलम्बन करनेवाला ( दोनों के बीच के मार्ग पर चलनेवाला )। योगाचार - योग ( चित्तवृत्ति की प्रवीणता ) और आचार का समन्वय करनेवाला । योग के द्वारा मानसिक सत्ता ( आलय-विज्ञान ) को हो स्वीकार करके बाह्य पदार्थों में विश्वास हटा देना । सौत्रान्तिक–सुत्त-पिटक से सम्बद्ध, इसके बहुत से ग्रंथ सुत्तान्त नाम से ही विख्यात हैं। वैभाषिक-विभाषा ( अभिधर्म-महाविभाषा ) नामक ग्रंथ में इनके सिद्धान्त प्रतिपादित हैं इसलिए यह नाम इनका पड़ा। ___ इसके बाद चारों भावनाओं पर पृथक् विचार किया गया है तथा क्षणिकत्व भावना के अनुपम होने के कारण उस पर कुछ अधिक विस्तारपूर्वक विचार है ।
(७. क्षणिकत्व की भावना--अर्थक्रियाकारित्व ) तत्र क्षणिकत्वं नीलादिक्षणानां सत्त्वेनानुमातव्यं यत्सत्तक्षणिकं, यथा जलधरपटलं, सन्तश्चामी भावा इति । न चायमसिद्धो हेतुः, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणस्य सत्त्वस्य नोलादिक्षणानां प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । व्यापकव्यावृत्या व्याप्यव्यावृत्तिरिति न्यायेन व्यापकक्रमाक्रमव्यावृत्तौ अक्षणिकात्सत्त्वव्यावृत्तेः सिद्धत्वाच्च । तच्चार्थक्रियाकारित्वं क्रमात्रमाभ्यां व्याप्तम् । न च क्रमाक्रमाभ्यामन्यः प्रकारः संभवति । ३. परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः।
नकतापि विरुद्धानामुक्तिमात्रविरोधतः ॥ (कुसु० ३।८) इति न्यायेन व्याघातस्योद्घटत्वात् ।।
३ स० सं०