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________________ चार्वाकदर्शनम् १३ अनुमान भी व्याप्तिज्ञान नहीं दे सकता, यदि अनुमान से व्याप्ति बने तो व्याप्ति को सिद्ध करनेवाले अनुमान की सिद्धि के लिए एक दूसरा अनुमान चाहिए, पुनः उस अनुमान के लिए तीसरा अनुमान चाहिए। इस प्रकार अनवस्था - दोष ( जिसको समाप्ति कभी न हो ) उत्पन्न होगा । [ अभ्य० – अग्नि को धूम में सिद्ध करनेवाली व्याप्ति जिस दूसरे अनुमान से ज्ञात होती है उस अनुमान को सिद्ध करनेवाली व्याप्ति किसी तीसरे अनुमान से ज्ञात होगी - इस प्रकार अनवस्था - दोष हुआ । ] शब्द-प्रमाण भी व्याप्ति ज्ञान नहीं दे सकता, क्योंकि कणाद ( वैशेषिकदर्शनकार ) के मत के अनुसार शब्द अनुमान के ही अन्तर्गत है' [ इसलिए अनुमान के खण्डन के साथ शब्द का भी खण्डन हो गया ] । यदि शब्द को अनुमान के अन्तर्गत न भी मानें तो भी वृद्ध-पुरुष के व्यवहाररूपी लिङ्ग ( चिह्न middle term ) की तो आवश्यकता पड़ेगी ही, इसलिए फिर ऊपर कहा हुआ दोष ( अनवस्था ) आ जायगा जिसे लाँघना टेढ़ी खीर है [ = शब्दप्रमाण में शक्तिग्रह द्वारा वस्तुओं का बोध होता है । शक्तिग्रह के भिन्नभिन्न उपाय हैं, जैसे -- व्याकरण, उपमान, कोश, आप्त-वाक्य, वृद्धव्यवहार इत्यादि । शक्तिग्रह का अभिप्राय है किसी शब्द के द्वारा निश्चित अर्थ के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित करना जैसे गौ कहने से एक चतुष्पद, सोंगवाले, खुरसहित प्राणी को समझ लेना । यही वैयाकरणों का शक्तिवाद या अर्थविज्ञान है जिसका वर्णन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में विस्तृत रूप से किया है । हाँ, तो शक्तिग्रह के साधनों में वृद्ध पुरुष का व्यवहार भी एक है । किन्तु यह ( वृद्धपुरुषवाला ) शक्तिग्रह या शक्तिज्ञान अनुमान - प्रमाण से होता है । जैसे - कोई बालक उत्तम वृद्ध के 'गामानय' कहने पर मध्यम वृद्ध को गौ लाते हुए - इस लिङ्ग को — देखकर 'गामानय' शब्दों का अर्थ 'गो लाओ' समझ लेता है, वैसे ही 'धूमअग्नि में व्याप्त है' इस प्रकार किसी के कहे हुए वाक्य से शब्दप्रमाण द्वारा उत्पन्न व्याप्ति - ज्ञान – जो अनुमान का साधन है 'धूम', 'अग्नि' और 'व्याप्ति' शब्दों के शक्तिग्रह ( अर्थज्ञान ) होने के बाद ही हो सकता है, उसके पहले नहीं । फिर शक्तिग्रह के लिए दूसरे व्यवहार रूपी लिङ्ग की आवश्यकता होगी अर्थात् दूसरा अनुमान चाहिए और उस अनुमान में भी शक्तिग्रह चाहिए - इस प्रकार पुनः अनवस्था आ जाती है । ] यह कहें कि धूम और अग्नि ( धूमध्वज ) में अविनाभाव - सम्बन्ध पहले से ही है तो इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों की बातों पर । इस तरह अविनाभाव-सम्बन्ध को न जाननेवाला व्यक्ति दूसरी चीज ( धूमादि ) देखकर, दूसरी चीज ( अग्नि आदि ) का अनुमान नहीं कर सकता इसलिए स्वार्थानुमान की बात १. देखिये - भाषा - परिच्छेद, १४० शब्दोपमानयोर्नैव पृथक्प्रामाण्यमिष्यते । अनुमानगतार्थत्वादिति वैशेषिकं मतम् ॥
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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