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सर्वदर्शनसंग्रहे
[ व्याप्तिज्ञान होना असम्भव है, बाह्या प्रत्यक्ष केवल बाहरी इन्द्रियों से उत्पन्न होता है ] । बाह्य-प्रत्यक्ष [ बाह्येन्द्रियों से ] सम्बद्ध ( बाहरी ) विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सकता है । [ बाह्येन्द्रियों का सम्बन्ध तो केवल वर्तमानकाल की वस्तुओं के साथ ही हो सकता है, अतएव ] इस तरह का ज्ञान भले ही वर्तमानकाल ( भवत् ) की वस्तुओं के विषय में सफल हो, परन्तु भूतकाल और भविष्यत्काल की वस्तुओं का ज्ञान देने में तो असफल हो जायगा । व्याप्ति तो सभी अवस्थाओं ( कालों ) का संग्रह करनेवाली है अतः [ बाह्यप्रत्यक्ष से ] इसका ज्ञान होना दुष्कर है। ऐसा भी न समझें कि व्याति का ज्ञान सामान्य ( जाति General class ) के विषय में होता है ( अर्थात् यद्यपि तीनों काल में धूम, अग्नि आदि के वैयक्तिक उदाहरण हम नहीं पा सकते किन्तु इनकी जाति - धूमत्व, अग्नित्व आदि - का तो कालिक ज्ञान एक बार ही हो सकता है । तीनों कालों के धूमों में धूमत्व तो वही है इसलिए सामान्य द्वारा व्यातिज्ञान हो सकता है - ऐसा नहीं समझना चाहिए ) क्योंकि तब दो व्यक्तिगत उदाहरणों में अविनाभाव ( व्याप्ति ) का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता | क्योंकि यह निश्चित नहीं कि जाति में प्राप्त सभी गुण उसके प्रत्येक व्यक्ति में होंगे ही । धूमत्व (जाति) को न व्याप्ति हमने जान ली, किसी विशेष धूम को तो नहीं न ? वैयक्तिक धूम की व्याप्ति न जानने से व्यक्ति के विषय में अनुमान भी नहीं हो सकता । ]
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नहीं करा सकता, अन्तःकरण बाह्ये
प्रत्यक्ष का दूसरा भेद ( आन्तर प्रत्यक्ष ) भी [ व्याप्तिज्ञान ] [ अन्तर प्रत्यक्ष मन रूपी अन्तरिन्द्रिय द्वारा ज्ञान देता है किन्तु ] न्द्रियों के अधीन है ( जो ज्ञान बाहरी इन्द्रियाँ पाती हैं, मन उसी की छाप ग्रहण कर लेता है ) इसलिए बाह्य-वस्तुओं ( धूम - अग्नि आदि ) में स्वतन्त्रतापूर्वक उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ( = बाह्यवस्तुओं के ज्ञान के लिए निश्चय ही अन्तःकरण बाह्येन्द्रियों की सहायता लेगा । कहा भी गया है— 'आँख आदि बाहरी इन्द्रियों के द्वारा प्रदर्शित ( उक्त ) विषयों को ग्रहण करनेवाला मन बाह्येन्द्रियों ( बहिः ) के अधीन है' ( तत्त्व - विवेक, २० ) ॥
(९. १. अनुमान और शब्द से व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता ) नाप्यनुमानं व्याप्तिज्ञानोपायः तत्र तत्रापि एवमित्यनवस्थादौःस्थ्य। नापि शब्दस्तदुपायः काणादमतानुसारेण अनुमाने एवान्तर्भा वात् । अनन्तर्भावे वा वृद्धव्यवहाररूपलिङ्गावगतिसापेक्षतया प्रागुक्तदूषणलङ्घनाजङ्घालत्वात् । धूमधूमध्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च । अनुपदिष्टाविनाभावस्य पुरुषस्यान्तरदर्शनेन अर्थान्तरानुमित्यभावे स्वार्थानुमानकथायाः कथाशेषत्वप्रसङ्गाच्च कैव कथा परानुमानस्य ?