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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे कल्पनाओं का क्रमशः संकोच और विस्तार होता है - इसके उदाहरण इस पुस्तक में ही अन्यत्र मिलेंगे | उत्सर्ग सामान्य नियम को कहते हैं और अपवाद त्य तब होता है जब तर्क में विलक्षणता रहे । विशेष नियम है । वैजा ४०२ इन तर्कों की उपयोगिता इसी में है कि उपर्युक्त दोषों की सम्भावना से न्याय को बचावें । तर्क को कुछ इस प्रकार रखते हैं- यदि ऐसा नहीं होगा तो किसी-न-किसी ( अनवस्था, अन्योन्याश्रय... ) तर्क के भेद का प्रसंग हो जायगा । इस प्रकार प्रमाण से साध्य अर्थ के विरुद्ध जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है । इसीलिए ये प्रमाण के अनुग्राहक हैं । ( ५ क. निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा ) यथार्थानुभवपर्याया प्रमितिनिर्णयः । स चतुविधः । साक्षात्कृत्यनुमित्युपमितिशाब्दभेदात् । तत्त्वनिर्णयफलः कथाविशेषो वादः । उभयसाधनवती विजिगीषुकथा जल्पः । स्वपक्षस्थापनहीनः कथाविशेषो वितण्डा । कथा नामवादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । यथार्थ अनुभव अर्थात् प्रमिति ( Real knowledge ) को निर्णय कहते हैं । [ न्यायसूत्र में कहा गया है— विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय: ( १1१1४१ ) अर्थात् पक्ष और विपक्ष की बातों पर विचार करके सन्देह दूर करते हुए तत्त्व का निश्चय करना ही निर्णय है । निर्णय करने के लिए जिस प्रमाण की आवश्यकता पड़ती है, उसी के आधार पर उसका नाम पड़ता है । जैसे अनुमान के आधार पर किया गया निर्णय अनुमति निर्णय कहलायेगा ? तो ] इसके चार भेद हैं-- साक्षात्कृति ( प्रत्यक्ष ), अनुमिति, उपमिति और शब्द | वाद एक प्रकार की कथा ( Disputation dialogue ) है जिसका फल तत्त्व का निर्णय हो जाना है । [ दो पक्षों में एक पक्ष का ग्रहण करके, उस पक्ष में पंचावयव अनुमान का प्रयोग किया जाता है तथा प्रमाणों से उस पक्ष की रक्षा करते हुए तर्क के द्वारा उसके विरुद्ध पक्ष का खण्डन भी करते हैं । हाँ, पूर्व से स्थिर किये गये विषय से सम्बन्ध रखता है । नैयायिकजी बचपन में पढ़ते कुछ कम थे । बस पिता ने बिगड़कर कहा कि तुम गौ ( = मूर्ख ) हो । बालक ने लक्ष्यार्थ को वाच्यार्थ में लेकर कहा कि गवि गोत्वमुतागवि गोत्वं चेद् गवि गोत्वमनर्थकमेतत् । अवि च गोत्वं यदि तव पक्षः सम्प्रति भवतु भवत्यपि गोत्वम् ॥ आप 'गो' से केवल गाय का ही अर्थ लेते हैं या उससे इतर प्राणियों का भी ? यदि केवल गाय अर्थ लेते हैं तो मेरे लिए गौ का प्रयोग व्यर्थ है, किन्तु गो से इतर में यह अर्थ लेने पर आप और हम दोनों ही गो हैं ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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