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________________ अक्षपाव-वर्शनम् ४०१ भाव-का भी आरोपण हुआ । पर्वत में धूम देखकर कोई व्यक्ति उक्त तर्क की सहायता से अनुमान प्रमाण के द्वारा अग्नि का निश्चय कर ले सकता है। यही कारण है कि तर्क को प्रमाणों का सहायक मानते हैं । न्यायसूत्र में कहा गया है कि जिस वस्तु का तत्त्व ज्ञात नहीं हो उसका तत्त्व जानने के लिए जो विचार ( उह ) कारणों का औचित्य दिखलाते हुए किया जाता है, वह तर्क है । इस प्रकार तर्क का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए लेते है । हाँ, किसी बात को हठपूर्वक सिद्ध करने के लिए कुतर्क का आश्रय लेते हैं । तर्क में तत्त्व-निर्णय करने के लिए साध्य वाक्य ( Proposition ) के उलटे वाक्य की असंगति दिखलाते हए आते हैं. जैसे यदि ऐसा नहीं होता तो.... .."ऐसा होता । इसलिए यह ठीक है । या यदि ऐसा होता तो........ऐसा होता जो असम्भव है । इसलिए ऐसा नहीं हो सकता, आदि ।] तर्क के ग्यारह भेद होते हैं-व्याघात, आत्माश्रय, इतरेतराश्रय ( अन्योन्याश्रय ), चक्रकाश्रय, अनवस्था, प्रतिबन्धी की कल्पना, कल्पनालाघव, कल्पनागौरव, उपसर्ग, अपवाद और वेजात्य। विशेष-जगदीश तर्कालंकार ने केवल पांच प्रकार के तर्कों के नाम लिये हैं-आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय, चक्रक, अनवस्था और प्रमाणबाधितार्थक । भाषापरिच्छेद में व्यभिचार की शंका के निवर्तक वाक्य को तर्क कहा गया है । किन्तु तर्क के जितने भेद बतलाये जा रहे हैं वे दोष हैं, स्वयं निवारण किये जाने की अपेक्षा रखते हैं-व्यभिचार का निवारण क्या करेंगे? असंबद्ध अर्थ से युक्त वाक्य को व्याघात कहते हैं, जैसे यह कहना है कि मैं मूक हूँ या अमूर्त पर रूप का आरोपण करना । जब किसी वस्तु का प्रतिपादन उसी वस्तु के आधार पर होने का प्रसंग आ जाये तब उसे आत्माश्रय कहते हैं, जैसे-रूप से युक्त वस्तु पर रूप का आरोपण । जब दो वस्तुएं एक दूसरे पर निर्भर करें तब अन्योन्याश्रय या इतरेतराश्रय तर्क होता है । उदाहरण के लिए 'हे राम ! उठो' यह वाक्य सुनने से राम जागता है और उधर जागने पर ही राम सुन सकता है । तो जागरण कारण है या श्रवण ? जागरण कार्य है या श्रवण ? दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं । जब दो से अधिक वस्तुएं एक दूसरे पर आश्रित हो जाये तब चक्रक होता है, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को बीच में ले आना । जागृति से इन्द्रियार्थसन्निकर्ष होता है और जागृति तभी होती है जब श्रवण होता है। इस प्रकार 'श्रवण-जागृति-इन्द्रियार्थसन्निकर्ष-श्रवण आदि' के रूप में आवर्तन ( Recurring ) होता है। जब.एक ही दिशा में कल्पना करें और कहीं भी इसका अन्त न हो तो उसे अनवस्था कहते हैं, जैसे जाति ( Generality ) में यदि जाति मानें तो उस जाति की भी एक दूसरी जाति होगी । इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते कहीं भी अन्त नहीं होगा। ये प्रसंग सभी दर्शनों में आते हैं। जिस तर्क से दोनों पक्ष समान रूप से प्रभावित हों वह प्रतिबन्धि-कल्पना ( या प्रतिबन्दी ) है, जैसे--पुरुष होने के कारण यदि यह चोर है तो आप भी तो चोर हैं क्योंकि पुरुष हैं । कल्पनालाघव और कल्पनागौरव में १. प्रतिबन्दी का बड़ा सुन्दर उदाहरण किसी वंगीय नेयायिक ( संभवतः जगदीश ) के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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