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________________ 1 जैमिनि-दर्शनम् ४७३ सहारा लिया गया है वह वास्तविक है या केवल प्रतीत होता है ? यदि यह ( विरुद्ध धर्मो का अध्यास ) वास्तविक है तब तो इसकी सिद्धि नहीं होगी [ क्योंकि गकारों में स्वभावतः विरुद्ध धर्म है ही नहीं - न कोई ग शब्द छोटा है न बड़ा । ] नहीं तो, यदि [ यह अध्यास वास्तविक होता और ] हम स्वाभाविक रूप से भेद को सत्ता मानते तो 'चैत्र ने दस गकारों का उच्चारण किया' ऐसे वाक्य का प्रतिपादन होता, न कि 'चैत्र ने गकार का दस बार उच्चारण किया' ऐसे वाक्य का । [ वास्तव में गकार का दस बार उच्चारण होता है । अत: गकार पर विरुद्ध धर्मों का आरोपण सत्य नहीं होता । ] द्वितीये तु न स्वाभाविकमेदसिद्धिः । न हि परोपाधिभेदेन स्वाभाविकमैक्यं विहन्यते । मा भून्नभसोऽपि कुम्भाद्युपाधिभेदात्स्वाभाविको भेदः । तत्र व्यावृत्तव्यवहारो नादनिदानः । तदुक्तमाचार्यै: ८. प्रयोजनं तु यज्जातेस्तद्वर्णादेव लप्स्यते । व्यक्तिलभ्यं तु नावेभ्य इति गत्वादिधी वृथा ॥ तथा च ९. प्रत्यभिज्ञा यदा शब्दे जागत निरवग्रहा । अनित्यत्वानुमानानि सैव सर्वाणि बाधते ॥ इति । यदि दूसरा विकल्प ( विरुद्ध धर्मों का प्रातिभासिक अध्यास ) लेते हैं तो स्वाभाविक भेद की सिद्धि ही नहीं होगी। दूसरे स्थानों में वर्तमान उपाधियों के भेद से किसी की स्वाभाविक एकता का विनाश नहीं होता । [ यदि किसी की स्वाभाविक एकता का कभी विनाश नहीं होगा तब तो आकाश में घटादि उपाधियों के कारण भेद नहीं ही हो सकेगा, आप घटाकाशादि की सिद्धि कैसे करेंगे ? ] ठीक है, आकाश में भी घटादि उपाधियों के कारण स्वाभाविक भेद नहीं ही उत्पन्न होता है । [ जो लोग 'औपाधिक भेद' कहते हैं। उनका तात्पर्य है कि उपाधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, न कि उपाधियों के कारण वस्तु में भेद । तब गकार व्यक्ति के एक होने पर 'इस गकार को सोमशर्मा ने पढ़ा', 'इसे देवदत्त ने पढ़ा' – इस तरह एक दूसरे के विरोधी वाक्यों की प्रतीति कैसे होगी ? ] इन एक दूसरों का व्यावर्तन (विरोध) करनेवाले वाक्यों का व्यवहार नाद ( व्यंजक ध्वनि ) के कारण है । इसे आचार्यों ने कहा भी है- 'जिस काम के लिए [ नेयायिक लोग ] जाति को स्वीकार करते हैं वह काम ( प्रयोजन ) तो केवल वर्ण से पूर्ण किया जा सकता है । जिस लक्ष्य की प्राप्ति उन्हें व्यक्ति को स्वीकार करने पर होती है उसे हम नादों ( व्यंजक ध्वनियों) से सिद्ध कर लेते हैं-अत: गत्वादि - जाति का ज्ञान व्यर्थ ॥ ८ ॥' [ मीमांसक गत्व-जाति का खण्डन करते हैं क्योंकि गकारादि व्यक्ति एक ही है । घटत्वादि जाति को नैयायिक इसलिए स्वीकार करते हैं कि 'यह घट, वह घट', आदि प्रतीति हो
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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