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________________ सांख्य दर्शनम् ५३३ नित्य, द्रष्टा, भोक्ता और क्षेत्रविद् ( प्रकृति को जाननेवाला ) है । इतना होने पर भी सांख्य में ईश्वर नहीं माना जाता जिससे कभी-कभी इसे निरीश्वर सांख्य भी कहते । इसकी तुलना में योग-दर्शन को सेश्वर सांख्य कहते हैं । यह स्मरणीय है कि वैशेषिकों के द्वारा कहे गये सात पदार्थों का अन्तर्भाव इन्हीं पचीस तत्त्वों में होता है । पृथिवी आदि नौ द्रव्यों में पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और मन का तो इन्हीं शब्दों के द्वारा उल्लेख हुआ है । आत्मा पुरुष है । दिशा और काल आकाश के अन्तर्गत हैं गुण, कर्म और सामान्य तो द्रव्य के ही अन्तर्गत हैं, क्योंकि धर्म और धर्मो अभिन्न हैं । विशेष और समवाय का तो कोई उपयोग ही नहीं इसलिए उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता । अभाव एक प्रकार का भाव ही है । घट का प्रागभाव मिट्टी ही है, घटध्वंस का अर्थ है फूटे टुकड़े, घट का अत्यन्ताभाव केवल आधार को ही कहते हैं, पटादि घट का अन्योन्याभाव है । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन १. अभिमानोऽहङ्कारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः । एकादशक रणगणस्तन्मात्रापश्चकं चैव ॥ २. सात्विक एकादशकः प्रवर्तते वैकृतादहंकारात् । भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम् ॥ ३. बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुः श्रोत्र- प्राणरस नत्वागाख्यानि । वाक्पाणिपादपायूपस्थाः कर्मेन्द्रियाण्याहुः ॥ ४. उभयात्मकमत्र मनः संकल्पकमिन्द्रियं च साधर्म्यात् ॥ ( सां० का ० २४- २७ ) इति । विवृतं च तत्त्वकौमुद्या माचार्यवाचस्पतिभिः । जैसा कि ईश्वरकृष्ण ने [ सांख्यकारिका में ] कहा है- 'अभिमान की भावना ' को अहंकार-तत्त्व कहते हैं । इससे दो प्रकार के ही कार्य ( सृष्टि) उत्पन्न होते हैं, एक तो ग्यारह इन्द्रियों ( करणों ) का समुदाय और दूसरा पाँच तन्मात्रों (तन्मात्राओं ) का ॥ २४ ॥ [ सांख्यकारिका में पाठ है - एकादशकश्च गणः तन्मात्र पञ्चकचैव । वाचस्पति ने भी यही पाठ रखा है । ] 'तदस्य परिमाणम्' के अर्थ में पाणिनिसूत्र ( ५।१।२२ ) अर्थात् ' संख्याया अतिशदन्ताया: कन्' से कन् प्रत्यय होने से एकादशकः और पञ्चकः शब्द बने हैं । पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन—- ये ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । जिन्हें १. वाचस्पति कहते हैं - 'जो आलोचित और विचारित विषय है, उसका मैं अधिकारी हूँ', 'मैं यह काम करने में समर्थ हूँ', 'ये विषय मेरे ही लिए हैं', 'मेरे सिवा इनका कोई अधिकारी नहीं है', 'इसलिए मैं हूँ' – ये असाधारण व्यापार होने के कारण अभिमान या अहंकार हैं ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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