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सर्वदर्शनसंप्रहे
महत्तत्त्व ही है । निश्चय करनेवाला अन्तःकरण बुद्धि है, अभिमान करनेवाला अन्तःकरण अहंकार है तथा संकल्प करनेवाला अन्तःकरण मन है। यही इन तीनों में अन्तर है ।
सामान्य से विशेष की उत्पत्ति होती है । महत्तत्त्व सामान्य बुद्धि का बोधक है, इससे विशेष बुद्धि उत्पन्न होती है । विशेष बुद्धि में 'अहम्' ( मैं ) और 'इदम् ' (यह ) का बोध सम्मिलित है । 'इदम्' का बोध 'अहम्' के बोध पर निर्भर है, इसलिए महत् से तृतीय तत्त्व अर्थात् अहंकार-तत्त्व की उत्पत्ति पहले होती है । तीनों गुण इसे भी बांधते हैं, अतः सात्त्विक, राजस और तामस के भेद से अहंकार के तीन भेद हैं । सात्त्विक को वैकारिक, राजस को तेजस तथा तामस को भूतादि भी कहते हैं । जहाँ रजस् और तमस् को दबाकर सत्त्वगुण उत्कट होता है वहां सात्त्विक अहंकार कहलाता है । वह तेजस अंश से युक्त होकर प्रवृति दिखलानेवाली ग्यारह इन्द्रियों को उत्पन्न करता है । यही कारण है कि इन्द्रियों की उत्पत्ति को सात्त्विक या तेजस दोनों नाम से पुकारते हैं । जहाँ सत्त्व और रजस् को दबा - कर तमोगुण उत्कट होता है उसे तामस अहंकार कहते हैं । यह भी तेजस अंश के साथ मिलकर प्रवृत्ति-धर्मवाले पाँच तन्मात्रों को उत्पन्न करता है । इसीलिए पाँच तन्मात्रों की उत्पत्ति को तामस या तेजस कहते हैं ।
पाँच तन्मात्रों से शब्दतन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र और गन्धतन्मात्र का बोध होता है । शब्द आदि जो विशेष रहित गुण हैं इन्हीं में रहनेवाले पांच सूक्ष्म भूतों ( तत्त्वों Elements ) को तन्मात्र ( Sublte elements ) कहते हैं । शब्द से केवल शब्द ( विशेष से रहित शब्द ) का बोध होने के कारण इसे शब्द तन्मात्र ( शब्द और केवल उतना ही ) कहते हैं । इसी प्रकार अन्य तन्मात्र भी हैं । शब्द के विशेष भी होते हैं जैसे उदात्त, अनुदात्त, निषाद, ऋषभ आदि । स्पर्श के विशेषों ( Kinds ) में शीतत्व, उष्णत्व, मृदुत्व आदि हैं । रूप में नीलत्व, शुक्लत्व आदि विशेष हैं । रस में मधुरत्व, अम्लत्व आदि और गन्ध में सुरभित्व और असुरभित्व - ये विशेष हैं । सांख्यतत्त्वविवेचन में कहा भी है
शब्दतन्मात्रमित्येतच्छन्द एवोपलभ्यते । न तदात्तनिषादादिभेदस्तस्योपलभ्यते ॥
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ये तन्मात्र क्रमशः आकाश शब्दतन्मात्र ), वायु ( स्पर्शत ), अग्नि ( रूपत० ), जल ( रसत ० ) और पृथिवी ( गन्धत० ) की उत्पत्ति करते हैं जो पञ्च महाभूत कहलाते हैं ।
ये आठ प्रकृतियाँ, ग्यारह इन्द्रियाँ, पांच महाभूत - सब मिलकर चौबीस तत्त्व हैं ।
पचीसवां तत्त्व पुरुष है । वह जीवात्मा ही है, कोई सर्वज्ञ प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है, नहीं तो सुख, दुःख, मोह, जन्म, नहीं हो सकती । इसलिए सांख्य प्रवचन - सूत्र ( ६।४५ ) में कहा व्यवस्थात: पुरुषबहुत्वम् । वह जीवात्मा अनादि, सूक्ष्म, चेतन, सर्वगत, निर्गुण, कूटस्थ,
ईश्वर नहीं । यह पुरुष भी
मरण, मोक्ष की व्यवस्था
गया है— जन्मादि