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________________ सांख्य दर्शनम् ५३१ एवमहंकारतत्त्वमभिमानापरनामधेयं महतो विकृतिः। प्रकृतिश्च तदेवाहकारतत्वं तामसं सत्पञ्चतन्मात्राणां सूक्ष्माभिधानाम् । तदेव सात्त्विकं सत्प्रकृतिरेकादशेन्द्रियाणां बुद्धीन्द्रियाणां चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनात्वगाख्यानां कर्मेन्द्रियाणां वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानामुभयात्मकस्य मनसश्च । रजसस्तूभयत्र क्रियोत्पादनद्वारेण कारणत्वमस्तीति न वैयर्थ्यम् । महत, अहंकार और पांच तन्मात्र ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द तन्मात्र )-ये ऐसे तत्त्व हैं जो विकृति ( मूल प्रकृति के विकार ) और प्रकृति ( दूसरे तत्त्वों के उत्पादक ). भी हैं । यह भी सांख्याकारिका के उसी प्रसंग में कहा है-'महत् आदि सात तत्त्व प्रकृतिविकृति दोनों हैं' ( सां० का० ३)। इसका यह अर्थ है-जो प्रकृतियां भी हैं तथा विकृतियां भी, उन्हें प्रकृति-विकृति कहते हैं जो महत् आदि सात तत्त्व हैं। उनमें 'अन्तःकरण' आदि शब्दों के द्वारा बोधित होनेवाला महत् तत्त्व है जो अहंकार नामक अगले तत्त्व की प्रकृति है, किन्तु स्वयं वह मूल-प्रकृति की विकृति ( Evolute ) है । - इसी तरह अहंकार-तत्त्व, जिसका दूसरा नाम 'अभिमान' भी है, महत्तत्त्व की विकृति (कार्य) है, जब कि वही अहंकार-तत्त्व, तमोगुण से युक्त होने पर, 'सूक्ष्म' नामक पांच तन्मात्रों की प्रकृति ( कारण Evolvent ) बन जाता है । वही सत्त्वगुण के प्रकर्ष से, ग्यारह इन्द्रियों की अर्थात् आंख, कान, नाक जीभ, चमड़ा-इन पांच ज्ञानेन्द्रियों की; वचन, पाणि, पाद, पायु (मलद्वार ) और उपस्थ (जननेन्द्रिय )-इन कर्मेन्द्रियों की तथा उभयात्मक ( ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय ) मन की भी, प्रकृति है। रजोगुण तो दोनों अवस्थाओं में कार्य उत्पन्न करने के चलते अपने-आप कारण है, उसे व्यर्थ न समझें। विशेष-प्रकृति के नाम से सांख्यदर्शन में आठ तत्त्व विहित हैं। उनमें मूल-प्रकृति या प्रधान का वर्णन ऊपर हो चुका है । प्रस्तुत सन्दर्भ में बाकी तत्त्वों का वर्णन किया जा रहा है । दूसरा तत्त्व बुद्धि है जिसे महत् भी कहते हैं। इसमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य नाम के प्रकृष्ट गुण रहते हैं । महत (बुद्धि-सामान्य ) मूल-प्रकृति से ही उत्पन्न होता है । प्रधान की तरह यह भी त्रिगुणात्मक है । किन्तु सत्त्वांश की प्रधानता रहती है। फिर भी कभी-कभी रजस और तमस भी प्रकट होते हैं। प्रत्येक जीव में अपनी-अपनी उपाधियों से युक्त होकर यह बुद्धितत्त्व पृथक्-पृथक् रहता है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बुद्धि में क्रमशः रजस्, सत्त्व और तमस् का आविर्भाव होता है। कुछ बुद्धितत्त्वों में रजस् और तमस् का आविर्भाव होने से सत्त्व तिरोहित हो जाता है; महत् होने पर भी अमहत् के समान अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य से युक्त होते हैं- इस प्रकार की उपाधियों से युक्त होने पर क्षुद्र तथा पुण्यहीन जीव धर्माचरण में प्रवृत्त न होकर अधर्म करते दिखलाई पड़ते हैं। महत्तत्त्व को माधवाचार्य 'अन्तःकरण' भी कहते हैं । यह शब्द बड़ा भ्रामक है, क्योंकि इससे बुद्धि, अहंकार और मन तीनों का बोध होता है। अन्तःकरण-रूपी वृक्ष का अंकुर
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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