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________________ पातञ्जल-वर्शनम् निर्भर करता है, ऐसा ही दिखाया गया है; अतः शब्द की दृष्टि से योग की प्रधानता नहीं हो रहती । [ योगानुशासन एक सामासिक पद है तथा तत्पुरुष समास है जिसमें उत्तरपद अर्थात् 'अनुशासन' प्रधान है। योग तो अनुशासन के अधीन है, उसका उपपाद विशेषण के रूप में हुआ है । तो 'अथ' शब्द का सम्बन्ध प्रधान शब्द अर्थात अनुशासन ( शास्त्र ) के साथ होगा न कि अप्रधान शब्द योग के साथ । 'अथ' के द्वारा 'शमादि के बाद' अर्थ नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'शमादि के बाद' का सम्बन्ध योग के साथ है और 'अर्थ' का सम्बन्ध अनुशासन के साथ । दूसरे शब्दों में, शमादि के बाद योग भले ही होता है, पर उनसे योगानुशासन की उत्पत्ति नहीं हो सकती । ] न च शब्दतः प्रधानभूतस्यानुशासनस्य शमाद्यानन्तर्यमथशब्दार्थः किं न स्यादिति वदितव्यम् । अनुशासनमिति हि शास्त्रमाह । अनुशिष्यते व्याख्यायते लक्षणभेदोपायफलसहितो योगो येन तदनुशासनमिति व्युत्पत्तेः। आप ऐसा नहीं कह सकते कि शब्द की दृष्टि से ( = समास में ) जो प्रधान शब्द अनुशासन है, टसे ही शमादि के बाद मानकर 'अथ' शब्द का अर्थ क्यों न कर लें। ऐसा इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि अनुशासन का अर्थ शास्त्र है। उसकी व्युत्पत्ति (निर्वचन ) यह है-जिससे योग अनुशिष्ट ( अनु + Vशास् ) हो अर्थात् लक्षण, भेद, उपाय और फल के साथ जिसके द्वारा योग की व्याख्या की जाय वही अनुशासन है। [ उदाहरण के लिए 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' (यो० सू० ११२) में योग का लक्षण दिया गया है, 'वितर्कविचार०' आदि (१११७ ) सूत्रों में सम्प्रज्ञातादि योग-भेदों का वर्णन हुआ है। साधनपाद में योग के लिए उपाय भी दिखलाये गये हैं । कैवल्यपाद में योग के फल (मोक्ष ) का निरूपण हुआ है।] अनुशासनस्य च तत्त्वज्ञानचिख्यापयिषानन्तरभावित्वेन शमदमाद्यानन्तर्यनियमाभावात् । जिज्ञासाज्ञानयोस्तु शमाद्यानन्तर्यमाम्नायते-'तस्माच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्' (वृ० उ० ४।४।२३) इत्यादिना । नापि तत्त्वज्ञानचिख्यापयिषानन्तर्यमथशब्दार्थः। तस्य सम्भवेऽपि श्रोतृप्रतिपत्तिप्रवृत्योरनुपयोगेनानभिधेयत्वात् । [अब यह प्रश्न हो सकता है कि अनुशासन का अर्थ शास्त्र होता है तो ठीक है, परन्तु इससे 'अर्थ' शब्द के अर्थ-शमादि के बाद-पर क्या प्रभाव पड़ता है ? इसी के उत्तर में कहते हैं-] यह अनुशासन चूंकि तत्त्वज्ञान का वर्णन करने की इच्छा के अनन्तर उत्पन्न होता है, शम-दम आदि के अनन्तर होने का तो इसका नियम है ही नहीं। [ जो चीज अनुशासन के पहले नियम से आती होगी, उसी का अर्थ अथ शब्द के द्वारा प्रकट हो सकता है। चूंकि अनुशासन सूत्रकार के द्वारा किया जाता है अतः सूत्रकार की इच्छा के बाद हो उन्हें शास्त्र की रचना करने की प्रवृत्ति हुई होगी । शमादि साधनों के बाद प्रवृत्ति नहीं
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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