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________________ ५६२ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं है, अपितु वे पदपूरण के साधन मात्र हैं । ठीक वैसे ही अथ शब्द का वाच्यार्थ मंगल नहीं है,-अथ का प्रयोग देखकर हम कह सकते हैं कि यहां अथ से मंगल की सिद्धि होती है । अथ के दूसरे अर्थों के ये उदाहरण हैं । अनन्तर ( बाद के अर्थ में )-स्नानं कृत्वाथ मुञ्जीत । आरम्भ-अथ योगानुशासनम् । प्रश्न-अथ वक्तुं समर्थोऽसि ( क्या तुम बोल सकते हो ) ? पूर्णता-अथ धातून ब्रूमः। ___माना कि प्रश्न और पूर्णता का अर्थ यहां नहीं हो सकता [ क्योंकि न पतञ्जलि किसी से कुछ पूछना ही चाहते हैं और न पूरे योगशास्त्र का प्रतिपादन हो रहा है, ऐसा कहने में ही कोई अभिप्राय छिपा है ] | फिर भी चार अर्थों की सम्भावना तो हो सकती है अर्थात् अनन्तर, मंगलबोधक, पूर्व में हुई बातों की अपेक्षा करनेवाला या आरम्भ का अर्थ ? तो केवल आरम्भ के अर्थ की सम्भावना मानकर [ आपने अन्य तीन अर्थों का अधिकार क्यों छीन लिया ? ] केवल एक अर्थ तो असिद्ध है । मैवं मंस्थाः। विकल्पासहत्वात् । आनन्तर्यमथशब्दार्थ इति पक्षे यतः कुतश्चिदानन्तयं पूर्ववृत्तशमाद्यसाधारणात्कारणादानन्तयं वा ? न प्रथमः । 'न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्' ( गी० ३।५) इति न्यायेन सर्वो जन्तुरवश्यं किंचित्कृत्वा किंचित्करोत्येवेति तस्याभिधानमन्तरेणापि प्राप्ततया तदर्थाथशब्दप्रयोगवैयर्थ्यप्रसक्तः। न चरमः । शमाद्यनन्तरं योगस्य प्रवृत्तावपि तस्यानुशासनप्रवृत्त्यनुबन्धत्वेनोपात्ततया शब्दतः प्राधान्याभावात् । [ उक्त शंका का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ] ऐसा मत सोचिये, क्योंकि निम्न विकल्पों की कसौटी पर यह कसा नहीं जा सकता। यदि 'अथ' शब्द का वाच्यार्थ 'अनन्तर होना' मानते हैं तो इसका क्या अर्थ है-क्या जिस किसी भी चीज के बाद होना या [ योगाभ्यास के ] पूर्व में किये गये शम आदि असाधारण कारणों के बाद होना ? [ शमादि = शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान । शम का अर्थ है मन का निग्रह करना, दम = बाह्येन्द्रियों का निग्रह, उपरति = संन्यास, तितिक्षा = सहिष्णुता, श्रद्धा = गुरु आदि के वाक्यादि पर विश्वास । समाधान = चित की एकाग्रता । ये योग के असाधारण कारण हैं । क्या इनके पश्चात् योगानुशासन करते हैं ? ] ____इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है । गीता में एक पंक्ति है—'कोई भी पदार्थ बिना कर्म किये हुए एक क्षण भी ठहर नहीं सकता' (गीता ३१५)-इस नियम से यह तो सहज-सिद्ध बात है कि कोई भी व्यक्ति कुछ करने के बाद कुछ करता ही है तो उसका नाम न लेने पर भी उसकी प्राप्ति तो हो ही जाती । अतः उसी सिद्ध बात के लिए 'अथ' शब्द का प्रयोग करना व्यर्थ है। दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं है । यद्यपि शमादि कारणों के बाद ही योग की प्रवृत्ति होती है फिर भी [ 'अथ योगानुशासनम्' सूत्र में ] यह योग अनुशासन की प्रवृत्ति पर ही
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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