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पातञ्जल- दर्शनम्
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वाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेश:' ( पात० यो० सू० २०९ ) इति । ते चाविद्यादयः पश्व सांसारिक विविधदुः खोपहारहेतुत्वेन पुरुषं क्लिश्नन्तीति क्लेशाः प्रसिद्धाः ।
पूर्वजन्म में अनुभूत मृत्यु के दुःख के अनुभव की वासना ( संस्कार, impression ) के कारण सभी प्राणधारियों में चाहे वे कृमि हों या विद्वान् - सबों में उत्पन्न होनेवाला, 'शरीर, विषय आदि से मेरा वियोग न हो' इस तरह बिना कारण के भय के रूप में प्रवृत्त होनेवाला पाँचवाँ क्लेश अभिनिवेश है । 'मैं कभी अतीत का विषय न बन जाऊँ, किन्तु सदा रहूँ' इस तरह की प्रार्थना प्रत्येक पुरुष करता है जो अनुभव से सिद्ध है । इसे पतञ्जलि ने कहा है - [ मरने का भय जो हर एक प्राणी में ] स्वभावतः बह रहा है और विद्वानों के लिए भी वैसा ही प्रसिद्ध ( रूढ़ ) है [ जैसा कि मूर्खो के लिए ], वह अभिनिवेश नाम का क्लेश है' ( पा० यो० सू० २१९ ) ।
अविद्या आदि ये पाँचों क्लेश विविध सांसारिक दुःखों की प्राप्ति ( उपहार ) करने के कारण पुरुष को कष्ट देते हैं ( / क्लिश् ) तथा प्रसिद्ध हैं ।
( १५. कर्म, विपाक और आशय )
कर्माणि विहितप्रतिषिद्धरूपाणि ज्योतिष्टोम ब्रह्महत्यादीनि । विपाकाः कर्मफलानि जात्यायुर्भोगाः । आफलविपाकाच्चित्तभूमौ शेरत इत्याशयाः धर्माधर्मसंस्काराः । तत्परिपन्थिचित्तवृत्तिनिरोधो योगः । निरोधो नामावमात्रमभिमतम् । तस्य तुच्छत्वेन भावरूपसाक्षात्कारजननक्षमत्वासम्भवात् । किन्तु तदाश्रयो मधुमती मधुप्रतीका-विशोका - संस्कारशेषाव्यपदेश्यश्चित्तस्यावस्थाविशेषः । निरुध्यन्तेऽस्मिन्प्रमाणाद्याश्चित्तवृत्तय इति व्युत्पत्तेरुपपत्तेः ।
कर्म विहित और प्रतिषिद्ध के रूप में [ दो प्रकार के हैं, ( विहित कर्म ) तथा ब्रह्महत्या ( प्रतिषिद्ध कर्म ) आदि । कर्म के
1 वे हैं - जाति ( जन्म ), आयु ( जीवन का समय ) तथा भोग ( सुख, दुःख और
परिणत होने के समय तक
मोह उत्पन्न करनेवाले साधनों का प्रयोग ) । फल के पूर्णतः जो चित्त की भूमि में अवस्थित रहते हैं ( Vशी ) अधर्म के संस्कार |
आशय हैं अर्थात धर्म और
जैसे
| ज्योतिष्टोम
फलों को विपाक कहते
चित्तवृत्ति का वह निरोध जो इन क्लेशों का विरोधी है वही योग है । निरोध का यहाँ पर केवल 'अभाव' अर्थ ही नहीं लिया गया है, क्योंकि केवल अभाव अर्थ तो ] निरोध स्वरूपहीन हो जायगा तथा वह भावात्मक ( Psitive ) साक्षाकार
जाना। इसलिए विरोध मे
( = ध्येय का साक्षात्कार ) उत्पन्न करने में असमर्थ चित्त की उन अवस्थाओं का अर्थ लेते हैं, जो उस
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पर आश्रित तथा